अनुप्रास ... सभी काममें बढ़ाबढ़ी दोष मानी गयी है। अल्पप्राण और दीर्घप्राण वर्णसे कविता बनाना परिमित काम करनेसे गुण निकलता है। अब यही चाहिये। आदि, करुण और शान्तिरस अल्पप्राण एवं देखना चाहिये, अनुप्रास क्या है और उससे रचना वीभत्स, हास्य, रौद्र, वीर, भय और अद्भुतरस दीर्घप्राण कितनी मिष्ट पड़ती है ? वर्णसे रचे । वर्गके प्रथम, तृतीय, पञ्चम वर्ण और य र "ततोऽरुणपरिस्यन्दमन्दीक तवपुः शशी । ल व को अल्पप्राण, और वर्गके द्वितीय, चतुर्थ वर्ण, दने कामपरिक्षामकामिनीगण्डपाण्डुताम् ॥". एवं श ष स ह को महाप्राण कहते हैं। आदि प्रभृति ऊपरके श्लोकमें 'स्यन्द,' 'मन्द', 'काम' 'क्षाम', रसमें न और म संयुक्त वर्ण प्रशस्त है, किन्तु टवर्गका 'गण्ड', 'पाण्डु', यह तीन अनुप्रास आये हैं। संयुक्त वर्ण ठीक नहीं पड़ता। वीभत्स प्रभृति रसमें होलीमें रोली लिये बोली तिय मुसकाय । अनुनासिक-भिन्न अन्य संयुक्त वर्ण और टवर्गका हौ वैगि कामह इत आइये माखन दह' खवाय ॥ संयुक्त वर्ण प्रशस्त रहता है। किन्तु रचनाके समय यहाँ होली, रोली और बोली शब्द अनुप्रासके हैं। चुन-चुन केवल अल्पप्राण और दीर्घप्राण वर्णका प्रयोग इसीतरह दो-तीन वर्ण एक प्रकार पास-पास पड़नेसे 'प्रायः नही पहुंचता। सर्वत्र ही दोनो प्रकारका वर्ण अनुप्रास गंठता है। मिल जाता है। फिर भी आदि, करुण और शान्ति- व्यञ्जनवर्णका ही अनुप्रास मिष्ट लगता है, वर- रसमें अल्पप्राण वर्णको संख्या अधिक सजती और वर्णका अनुप्रास उतना मोठा नहीं उठता। वीर प्रभृति रसमें दीर्घप्राण बहुल परिमाणसे नाची गावी रंग करो खेलो पाज गुलाल । होलीको मौको भलो चली मनावो लाल ॥ पड़ता है। कण करन कल किङ्गिणी कलित कटि यहां ओकार वर्णका अनुप्रास पड़ा है। ओकार कञ्चनं कंगूरा कुचं कारी कैश यामिनी। स्वरवर्ण है, इससे व्यञ्जन-अनुप्रासकी तरह सुनने में कानन करनफ ल कोमल कपोत कण्ठ 'मोठा नहीं लगाता। कम्बुक कपोत कौर कोकिल कलामिनी।। किसी प्रकारके व्यञ्जनवर्णमें यदि अ, इ, उ प्रभृति कैशर कुसुम कलधौतकी कळू न कान्ति नानारूप स्वरवर्ण युक्त हों, तो अनुप्रासको कोई क्षति कोविद प्रवीण वेणी करिवरगामिनी। नहीं निकलती। कोक कारिकासी किन्नरोक कन्यकासौ किल "अयमति मन्द मन्द कारीवारिपावन: पवनः ।" कामको कलासी कमलासी खासी कामिनी। यहां वेरी और वारि इन दो शब्दमें भिन्न-भिन्न इस कवितामें अल्पप्राण वर्ण ही अधिक पाये जाते स्वरवर्ण लगे हैं। अर्थात् वेरीका व एकार-संयुक्त और हैं, इसलिये कामिनीके लावण्यभावका जो आदि रस वारिका व अकार-संयुक्त है। इसतरह विभिन्न स्वर रहा, वह ख ब टपक पड़ा है। सटनेसे अनुप्रासको क्षति नहीं होती। दूसरे, पावन "धो धो धो धो नगारा गड़ गड़ गड् गड चौघड़ी घोरघर्ष: और पवन इन दो शब्दमें भी एक प वर्णपर आकार भों भौं भीरङ्ग शब्दर्घन घन घन बाजे च मन्दीरनादः। है, दूसरेपर नहीं पाते। तथापि - अनुप्रास अधिक भेरी तूरौ दमामा दगडदड़मसाशब्दनिस्तब्धदेवे- दैत्योऽसौ घोरदैत्य : प्रविशति महिषः सार्वभौमो बभूव ॥" सुश्राव्य बना है। इसीतरह कविताके स्थान-स्थानमें सम्भवमत दो- इस कविताके भीतर दीर्घप्राण वणको ही संख्या एक अनुप्रास पड़नेसे पद्य सुननेपर मिष्ट मालूम होता अधिक है। इसमें अल्पप्राणवणं उतने नहीं पड़े, है। किन्तु अधिक अनुप्रासका आडम्बर बांधनेसे इसीसे वीररस खू.ब स्पष्टरूपसे झलका है। 'पदलालित्य लापते हो जाता ; वरन् वैसी रचना अलङ्कारिकोंने अनुप्रासको अनेक श्रेणीमें बांटा पढ़नेमें कटु लगती है। है। नौचे स्पष्ट तालिकामें देखाते हैं, कौन श्रेणीका अनुप्रासमें कविता लगाते समय काव्यका रस देख अनुप्रास किस अनुप्रासके अनुगत 118.
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४७६
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