पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४७७

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४७० अनुप्रास अनुप्रास वृत्तानुप्रास तीन प्रकारका है,-उपनागरिका, परुषा और कोमला। "माधुर्यव्यञक वर्णरुपनागरिकोच्यते । वर्णानुप्रास (लाटानुप्रास) शब्दानुप्रास (पदगत) ओजः प्रकाशकैस्तैस्तु परुषा कोमला परैः ॥” (कावाप्रकाश ) छेकानुप्रास वृत्त्यनुप्रास अनुप्रासके वर्ण में माधुर्यगुण मिलनेसे उपनागरिका एकपदगत बहुपदगत उठता है। ओजोगुणप्रकाशक वर्ण द्वारा कविता बनानेसे परुषा पड़ती और दूसरा अनुप्रास कोमला उपनागरिका पुरुषा कोमला एक- भिन्न- सामान्य- कहाता है। समासगत समासगत समासगत अल्पप्राण वर्ण से रचित पद कोमल और माधुर्य- अनुप्रास प्रथमतः दो भागमें बंटा है। यथा,- गुणविशिष्ट निकलता है। उसमें यह वर्ण कुछ वर्णानुप्रास और शब्दानुप्रास। वाक्यके भीतर पास- अलग-अलग आनेसे उपनागरिका और पास-पास पास एक प्रकारके वर्ण बैठनेसे वर्णानुप्रास कहाता पड़नेसे कोमला हो जाती है। परुषा दीर्घप्राण और एक प्रकारके शब्द सङ्ग-सङ्ग सजनेसे शब्दानुप्रास वर्ण से बनती है। शा लाटानुप्रास निकलता है। वामनादिके मतमें इन तीनो अनुप्रासका नाम कान कु'वर कह कहत ही कामिनिसे अठिलाय । वैदर्भी, गौडी और पाञ्चाली रखना चाहिये। कान करत नहि काहुको कार कुटिल स्वभाय॥ "शब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्यमावतः।" (कावप्रकाश) यह वर्णानुप्रासका उदाहरण है। इस दोहेमें क- शब्दगत अनुप्रासको लाटानुप्रास कहते हैं। शब्द वर्णका अनुप्रास अड़ा-पड़ा है। और अर्थका अभेद रहते भी केवल तात्पर्यभेदसे हो शब्दानुप्रासका उदाहरण यह है,- यह अनुप्रास निकल पड़ता है। कोई-कोई इसका होली विच होली सखी पूरी मनकी पास । नाम पदानुप्रास बताते हैं। लगी कानके कानसों करत सौतको हास ॥ पदगत अनुप्रास दो भागमें विभक्त है,-एकपद- यहां भिन्नार्थ बोधक होली, होली और कान, गत और बहुपदगत ।- कान शब्दसे अनुप्रास बना है। “पदानां सः।-पदस्थापि।" (कावाप्रकाश ) वर्णानुप्रास फिर प्रधानतः दो भागमें विभक्त है। पदगत लाटानुप्रास एकपद और बहुपद दोनोके यथा,-छेकानुप्रास और वृत्तानुप्रास ।- साम्य में पड़ता है। "छकवृत्तिगतो विधा।" (काव्यप्रकाध) एकपदगतका उदाहरण यह है,- वाक्यके भीतर व्यञ्जनवर्णका एक बार सादृश्य "बदनं वरवर्शिन्यास्तस्याः सत्यं सुधाकरः। दौड़नेसे छेकानुप्रास गंठता है।- सुधाकरः क न पुनः कलकविकलो भवेत्॥" "अनेकस्य व्यञ्चनस्य सवर्दकवारं सादृश्य' केकानुप्रास:।" ( काव्यप्रकाश) अर्थात् उस सुन्दरीका मुख सुधाकर ही है। फिर देखिये,- वह भी कैसे? कलङ्कसे जो सुधाकर कुत्सित हुवा, चञ्चल खञ्जनसे नयन रञ्जन उर घनश्याम । वह बात मुखमें कहां देख पड़ती है ? अलक पलक नहि लगन है, बनी अनोखी वाम ॥ यहां दोनोमें सुधाकर शब्दका सामा विद्यमान है। यहां खञ्जन, रञ्जन और अलक, पलकका जोड़ उनके अर्थमें कोई प्रभेद नहीं पड़ा, केवल तात्पर्य मिलनेसे छेकानुप्रास होता है। मात्रभेदसे लाटानुप्रास निकला है। बहुपदगतका “एकास्याप्यसतत् परः।" (कावाप्रकाश) उदाहरण नीचे देखिये,- एक अथवा अनेक व्यञ्जनवर्णका दो या दोसे “यस्थ न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य । अधिक बार सादृश्य दौड़नेपर वृत्तानुप्रास बंधता है। यस्य च सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य ॥"