बनो। १४॥ ४८२ अनुमृता पहुंचना चाहिये। तुम्हारा पाणिग्रहण जो करे, उसी बन्द कर देना भी कठिन काम है। वैदिक समयसे पुनर्बार विवाहेच्छु पतिको सम्यक् रूपसे जाया पूर्व सहमरण चलित रहा, इसी कारण वैदिक समयमें ऋषि यह प्रथा बिलकुल बन्द कर न ऋग्वेद और तैत्तिरीय-आरयकवाले दोनो मन्त्रके सके। इसलिये स्वामीको मृत्यु बाद पुरातन प्रत्येक शब्दका अर्थ मिलानेसे एक ही भाव निकलता, नियमको रक्षा रखनेके निमित्त विधवा नारी मृत किन्तु दोनो ही मन्त्र में कालके सम्बन्धपर गड़बड़ पड़ पतिको चिता-शय्यापर एक बार जा लेटती, जाता है। अन्त में लोग उसे उठा लाते थे। अनुमानसे इस "तामुत्थापयेद्दे वरः पतिस्थानीयोऽन्तेवासी। समय इतना ही कहा जा सकता है, कि वह सिवा जरहासो वोदीष्व नाभि जीवलोकमिति।" असली नियमको नकलके दूसरा कुछ भी न था। (आश्वलायन-सासूब ४।२।१८) यही सहमरणका पूर्व इतिहास हुवा। फिर भी, यह सकल प्रमाण देख स्पष्ट हो समझ पड़ा, कि मुसलमानी ज़माने में सहमरण-प्रथाके विशेष भावसे वैदिक समयमें स्वामीको मृत्यु बाद विधवा फिर घर प्रचलित होनेका कारण हिन्दूनारीको कुलधर्मरक्षा वापस जाती, मृतपतिके साथ जलती न थी। किन्तु रही। मुसलमानों में बहु विवाह विशेष भावसे प्रचलित एक बड़ा सन्देह उठ खड़ा होता है। असली वस्तु न है। मुसलमानोंके आधिपत्य-कालमें किसी-किसी रहनेपर उससे नकली वस्तु कैसे बनेगी ? असलो मोती मुसलमान-राजपुरुषकी हिन्दू महिलापर तीव्र और देखकर ही झूठे मोती तय्यार होते हैं। पहले यज्ञो लोलुप दृष्टि पड़ती थी। इस आशङ्कासे सकल हो पवीत होनेसे ब्रह्मचारी गुरुके आश्रम पहुंचता, जाकर पतिहौना नारीके सहमरणको अच्छा समझते, कि पीछे वेद पढ़ता था। अब वह चाल उठ गयौ ; यज्ञोपवीत उनकी पतिहीना विधवापर किसी प्रकार अत्याचार होनेसे कोई गुरुके घर वेद पढ़ने नहीं जाता। किन्तु न मचने लगता। इसीसे अंगरेजो अधिकारके प्रारम्भ पहलेके उस असली नियमको कुछ नकल आज भी पर्यन्त भारतमें सर्वत्र ही सहमरणके बाहुल्यका सन्धान देख पड़ती ; यज्ञोपवीत होनेपर ब्रह्मचारी घरसे लगा है। इसतरह बहुकाल भारतमें सहमरण प्रथा निकल जानेके लिये कई कदम आगे बढ़ता, पीछे प्रचलित रहनेसे देशीय राज्यके मध्य भी यह प्रथा जननी समझा-बुझा उसे वापस लाती है। यह केवल कुलगौरवजनक होनेके कारण सर्वत्र आद्रित हुयौ पुरातन नियमको रक्षामात्र है, वस्तुतः दूसरी कोई भी थी। बस, जो नारी सहमरणमें आत्मोत्सर्ग बात नहीं दिखाई देती। रखती, वह दाक्षायणी सती-जैसी भारतमें सर्वत्र पूजी वैदिक समयके सहमरणपर भी सन्देह है जाती रही। अनुमृता नारीको स्मृतिरक्षाके लिये स्वामीको मृत्यु बाद विधवा नारी मृतपतिको चितामें भारतके नानास्थानमें बहु सतौस्तम्भ बने हैं। सती देखो। क्यों जाकर लेटती थी। मालूम होता है, कि अब बताते हैं, पचास वत्सर पहले हिन्दुस्थानको वैदिक कालसे पूर्व आर्य-जातिके मध्य सहमरण स्त्री कैसे जल जाती थी। ऋतुमती, गर्भवती रहने चलित रहा। उत्साहपूर्वक भगिनी-हत्या, वा माट- और गोदमें छोटा बच्चा होनेसे स्त्री पतिके साथ कभी हत्या करना धार्मिक लोगोंको बुद्धिमें नही बैठता। जलने न पाती रही। फिर भी, ऋतुके तृतीय दिवस वेदके समय आर्य सुशिक्षित और सभ्य बने, धर्मके खामीको मृत्यु, पड़नेसे एक दिन शव रखनेको निर्मल ज्योतिःने उनके मनको आलोकित किया व्यवस्था विद्यमान है। किन्तु सन् १८२२।२३ ई० में था। वैसी अवस्थापर मिथ्या आशामें आ वह गवर्नमेण्ट चारो ओर तीव्र दृष्टि डालने लगी ; कभी स्त्रीहत्या कर न सके होंगे। किन्तु कोई पुलिसको विशेष अनुमति न मिलनेसे कोई सतीदाह प्रथा देशमें अधिक दिन चलती रहनेसे उसे बिलकुल कर न सकता, इसलिये उस समय तीनचार दिनतक -
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