पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४९५

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४८८ अनुराधपुर वहांका अनेक वृत्तान्त मिलता है। जिस वत्सर । बोधितरुके पीठस्थानको महाविहार कहते, बुद्धदेवको मृत्यु हुयो, उसौ वर्ष विजय नामक जनक इस पौठमें दो महल बने हैं। प्रथम महल चतुष्कोण व्यक्तिने पूर्वभारतके राढ़ देशसे जा सिंहलको जीता था। प्राचोरसे घिरा, प्राचोर २१० हाथ लम्बा, १६० वहीं बुद्ध चतुर्थ गौतम रहे । युरोपीयोंके हिसाबमें सन् हाथ चौड़ा और ६ हाथ ऊंचा खड़ा; उत्तर- ई०से ५४३ वत्सर पूर्व उनको मृत्यु हुयी थी। इस दिक्के मध्यस्थलसे एक चबूतरा बाहर निकल पड़ा हिसाबमें यदि कोई भूल न निकले, तो सहज हो निश्चय है। इसका परिसर कोई ४० हाथ होगा। इस कर सकते, अनुराधपुर कितने दिनका शहर है। चबूतरेको दोनो ओर छोटे-छोटे मकान बने, उनके विजय सिंहलके राजा बने थे। एक ओर राजा भातरसे पाठस्थानमें प्रवेश पहुंचाते हैं। इन मकानके दूसरी ओर प्रजाके धर्मगुरु-सिंहलमें प्रथम बौद्ध सम्मुख पत्थरको खुदी हुयो प्रतिमूर्ति पायी जाती है। धमका प्रचार उन्होंसे पहुंचा। किन्तु कोई-कोई उससे आगे बोधिवृक्षका प्राचीर पड़ता है। कहता, कि देवप्रियतिष्यने सिंहलवासोको बौद्ध- वहां चढ़ा-उतार सिडो बनी है, उसी सिड्डोसे वृक्षके धर्मकी दीक्षा दी थी। विजयके जनक बन्धुका नाम पास पहुंचते ; सिंहलके बौद्ध इस पड़पर बड़ी भक्ति अनुराध रहा। यह नगर उन्होंका बसाया हुवा था। रखते हैं। सन् ३८८ ई में फाहिएन् नामक जनक प्रथम यहां सिवा साधारण गांवके दूसरा कुछ भी न चीन-परिव्राजक सिंहलमें तीर्थयात्राके लिये पहुंच रहा। सन् ई०से ४३७ वत्सर पूर्व पाण्डु काभय यह वटवृक्ष देख गये। उनके भ्रमण-वृत्तान्तमें सिंहलके नरेश हुये थे। उन्होंने अनुराधपुरको सुरम्य लिखा है, कि उस समय इस वृक्षको शाखासे चारो अट्टालिकासे सजा अपनो राजधानी बनाया। अतएव और बो लटक रही थी। सन् १८२८ ई०में चापमेन इस नगरको बने कोई २३०० वत्सर वौते होंगे। साहबने यह पेड़ देखा। उनका कहना है, कि उस पहले इस नगरको चारो ओरके प्राचौरका घेरा समय इसमें पांच बड़ी-बड़ी शाखा रहों और तने के बत्तीस कोस रहा। अब वह प्राचौर टूट गया, निम्नभागसे चार-पांच छोटे-छोटे पौधे जम उठे थे। स्थान स्थानमें उसका चिह्नमात्र देख पड़ता है। वह छोटे छोटे पौधे शायद एक-जैसे नहीं रहते। मौतम किसी बोधिद्रुमके नीचे बैठ कठोर तपस्या सिंहलके बौद्ध बताते, कि पांच जन बुद्ध हो पृथक्. करते-करते सिद्ध बन गये थे। कहते हैं, कि सिंहलमें पृथक् वृक्षमूलमें बैठ सिद्ध बने ; इसोसे यह पांच शायद दैववाणौ हुयौ, उसी वृक्षको कोई शाखा बहां वृक्ष एक-जैसे नहीं देखायी देते। पहुंचकर गिर पड़ेगी। देववाणी मिथ्या जानेको महाविहारकी उस ओर पाव कोस दूर पुरातन नहीं निकलती। सन् ई०से ३०७ वत्सर पूर्व सत्य हो शैल चैत्य स्तूपाकार पड़ा है। इस स्थानमें बुद्धदेवके सत्व एक शाखा जा पड़ी, उस समय सिहलेतिष्य जबड़ेका अस्थि समाहित रहा और तृतीय बुद्ध यहीं सिंहलके नरेश रहे ; शाखा देख उनको भक्तिका स्रोत तीर्थपर्यटन लगाने पहुंचे थे; उससे यहांका उमड उठा। वह प्रजाको बौद्ध धर्म सिखाने लगे, इतना माहात्मा बढ़ गया। सन् ३०७ ई०से पहले क्रमसे अनुराधपुर बौद्धोंका तीर्थस्थान बन गया। देवप्रिय तिष्यराजने यह चैत्य बनवाया था। कहते वह बोधितरु आजतक नहीं सूखा। देवका कैसा हैं, कि तिष्यके राजा होनेसे बुद्धदेवने बड़ी कृपा माहात्मा है!-दो हजार वत्सर बोते, फिर भी देखायौ, उनके दक्षिण जबड़ेका अस्थि जाकर राज- जैसा वृक्ष रहा, वैसा ही बना है। उसका हास मुकुटपर पड़ा। नृपतिने भक्तिपूर्वक वह अस्थि उठा या वृद्धि कुछ भी नहीं होता। सन् ८८६ ई में समाहित किया था। इस समाधिमन्दिरको बनावट अनुराधसे राजधानी उठो थी। किन्तु इसका तीर्थ बिलकुल घण्टे-जैसी रही। पूर्व में इस चैत्यको चारो माहात्मा. अभी नष्ट नहीं हुवा। ओर १६८ खम्भे थे। अब प्रायः सकल ही टूट