पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५२२ अन्तःसत्त्वा. पहुंचते। द्वितीय,-पुरुषसंसर्ग लगनेपर शुक्रके उधर चल-फिर लगायेगा। मनुष्य के शरीरका साथ जो क्षुद्र-क्षुद्र कीटाणु रहते, वह इसी अण्ड जैसा स्वाभाविक ताप (८८ डिग्री) है, वैसे ही प्रणालीसे अण्डाधारके भीतर घुसते हैं। तापमें शुक्र रखनेसे यह कीटाणु प्रायः तीन दिन मनुष्यके भी दो अण्डाधार पेड़ में गालोके पास होते पर्यन्त जीते रहता है। मनुष्य के मर जाते भी शुक्र- हैं। अण्डप्रणाली जरायुसे निकल इन्हों अण्डाधारके कोट शीघ्र नहीं मरता। चौबीस घण्टेका पड़ा मुर्दा साथ मिल गयी है। अण्डाधारपर प्रायः बीस छोटे चौरनेसे भी शुक्रकीट जीवित निकलेगा। किन्तु छोटे कोष रहते ; अंगरेजोमें उन्हें ग्राफियान् भेसि प्रदर रोग किंवा दुष्ट शोणितके साथ रहनेसे यह कल् (grafian vesicles ) कहते हैं। यह सकल शौघ्र ही मर जाता है, इसलिये योनिरोग रहते स्त्रीके कोष लार-जैसे तरल पदार्थसे परिपूर्ण होंगे। उसके प्रायः सन्तान नहीं होता। मध्य क्षुद्र क्षुद्र व्रण-जे से बहुतसे छोटे-छोटे दाने और ऋतुके बाद पुरुषस'सगै लगनेपर शुक्रकीट दो-एक अण्डे चमका करते हैं। पकनेसे ग्राफियान् योनिसे जरायुमें जा पहुंचता है। अन्तको जरायुसे भेसिकल् अण्डाधारपर फूट पड़ते, तब उनके भीतरसे अण्डप्रणालौकी ओर बढ़ेगा। साथमें अल्प-अल्प शुक्र अण्ड निकलता है। अण्डके यह कोष स्त्रीको भी क्रमश: भौतर घुसता है। शुक्र भीतर पहुंचनेसे ऋतुके बाद ही सचराचर फटते, फूटनेसे यह शुक्रकीट परिपक्व अण्डके (ovum) मध्य जायेगा। अण्डप्रणालौके परदेमें जा पहुंचते हैं। हमारा कोई अण्डके भीतर अधिक कीटाणु जानेसे गर्भसञ्चारको कोई अन्त्र और पेशी क्रिमिको तरह गति रखता है। सम्भावना निश्चित समझना चाहिये। अण्डप्रणालीके पेशी सूत्रको क्रिमि-जैसी आकुञ्चन इसी तरह अण्ड और शुक्र एकत्र मिलनेपर दश- क्रियाक (peristaltic action ) दबावसे अण्ड बारह दिन बाद जरायुके मध्य अण्ड जा गिरता है। जरायुको ओर चला करते हैं। यदि गर्भसञ्चार पड़ा, तो इस अवस्थामें सन्तानका स्त्रीको ऋतु पड़नेसे पुरुषसंसर्ग आवश्यक है। कोई अवयव नहीं देखते। अण्डके भीतर केवल एक पुरुषसंसर्ग भिन्न गर्भसञ्चार नहीं होता। कारण, सामान्य भ्रूण (embryo) लार जैसे तरल रसमें शुक्र ही प्राणीको उत्पत्तिका प्रधान उपाय है। शुक्र (liquor amnii) गोता लगाते घूमता ; कोई पुरुषके अण्डकोषमें रहता है। इसमें एक प्रकारका पतली खाल इस भ्रूण और रसको घेर रखती है। कीटाणु पाते हैं। उसे ही हम चलती बोलौमें आंवर कहते हैं। उत्तर कालमें जिससे फल निकलता, इस अवस्थामें वही कुसुम-जैसी देख पड़ती है। इसी कुसुमके रससे भ्रूण बढ़ेगा। भावप्रकाशमें लिखते हैं,- "गर्भाशय निपतित यादृक् शक्र अथार्तवम् । शुक्रका कौटाण। ताहर्गव द्रवीभूतं प्रथमे मासि तिष्ठति ॥" यह कीटाणु अत्यन्त क्षुद्र है, अणुवीक्षण न लगाने अर्थात् जसो तरल अवस्थामें शुक्र और शोणित पर खाली आंखसे इसे नहीं देख सकते। अणुवीक्षणसे गिरता, प्रथम मास वह बिलकुल वैसी ही अवस्था में (खुर्दबीन) देखनेपर स्पष्ट मालूम हो सकता, रहता है। कीटाणु छोटे सांप-जैसा होता,-शिर मोटा रहता, युरोपीय पण्डितोंने अनेक परीक्षा हारा ठहराया पूछको ओर क्रमसे अत्यन्त पतला पड़ते जाता है। है, कि प्रथम मास मणके कोई अङ्गप्रत्यङ्ग नहीं यह तिलार्धकाल भी सुस्थिर न पड़ेगा, केवल इधर निकलता। इस समय केवल आटे-जैसा ईषत् स्वच्छ