पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५८१

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अन्वावरोध ५७५ अन्त के मध्य बहुपद मांस जमते यदि अन्तके भीतर अन्त घुसे, तो अन्तका पथ रुक जायेगा। अन्तके बाहरी पृष्ठका सिरस् आवरण बिगड़नेसे भी अन्तावरोध हो सकता है,- (१) अन्तसे लिम्फ अर्थात् लसिका निकलनेपर अन्त जुड़ जायगा। (२) अन्तके बल खाने किंवा अपने स्थानसे खिसकने अथवा किसी वक्रदिक्को मुड़ जानेपर अन्तावरोध होता है। (३) अन्तके बाहर आबला या फोड़ा उठनेसे अन्तावरोध लगेगा। (४) स्थ लान्त किंवा मध्यान्त के बीच अन्ववृद्धि इसका दूसरा कारण है। (५) वक्षके निम्नस्थ आवरण अर्थात् डायेफेमको अन्त्रवृद्धि अन्वावराध लगाती है। (६) ओमेण्टस नामक पाकस्थली और अन्तवेष्ट परदेको अन्त वृद्धिसे अन्त विरोध हो जायगा। (७) रोधक अन्त वृद्धिसे अवरोध पड़ता है। (८) अन्त के भीतर फलादिका वौज, त्वक् किवा अन्य कोई पदार्थ बैठने, पथरौ पड़ने अथवा कठिन मल बंध जानेसे अन्तावरोध होगा। लक्षण-उदरवेदना एवं बारम्बार वमन ही इस पौड़ाका प्रधान लक्षण है। अन्तावरोध पड़नेसे प्रथम अल्प-अल्प वमन होगा। वमनके साथ अजीर्ण- भुक्त द्रव्य एवं श्लेमा निकल पड़ता है। किन्तु दो-तीन दिन बाद ही वमनसे विष्ठा-जैसा दुर्गन्ध उठे, अन्त में विष्ठा भी निकलेगी। ऐसे समय मलद्दारमें एरण्डतैल किंवा अन्य औषधको पिचकारी लगानसे उसका आस्वाद मुखपर मालूम किया जा सकता है। कभी-कभी वह औषध भी मुखमें पहुंच जायगा। उसके बाद पेटमें अत्यन्त वेदना उठतो, पेट फूलता, दबानेसे पेट कड़ा लगता और हक-हक हिचकी आती क्षुद्रान्त का अपरिभाग रुकनेस, डायेफाम अधिक सिकुड़े; जिससे दुरूह हिक्कामें रोगीके प्राण कण्ठमें जा लगेंगे । अन्त की स्वाभाविक गति रुकनेस मल नहीं निकलता। रोगीका मन सर्वदा ही उद्विग्न रहता, यन्त णासे क्षणकालके लिये स्वस्ति नहीं मिलती और रातको भी नोंद आना मुश्किल पड़ता है। देहका सन्ताप कभी घटे और कभी अतिशय बढ़ेगा। क्रमसे नाड़ी भी क्षीण होती और द्रुतवेगसे चलने लगती है। कठिन अन्त विरोधको प्रायः ऐसी ही अवस्थामें रोगी मर जायगा। अन्त विरोध पड़नेसे भौतरका अवरुद्ध स्थान कुछ फूल उठता है। पेटके ऊपर हाथ रख सावधानीसे देखनेपर यह सूजन पहलेसे स्पष्ट देख पड़ेगी। सूजनपर अङ्गुलिसे धोरे-धीरे ठोकनेमें, पहले-जैसा भद-भद शब्द नहीं निकलता। इस पौड़ाके साथ कठिन पेरिटोनाइटिस् भो अनेक स्थल में देख पड़ेगा। अधिक दिन अन्त अवरुद्ध रहनेसे क्रम-क्रम नाड़ी चलती है। किन्तु अन्त का कियदंश अन्त के भीतर घुस जानेसे उसके शोघ्र और अधिक सड़नेकौ सम्भा- वना होगी। अन्त के ऊपर हादशाङ्गुल्यन्त का काई स्थान रुकनेमें पहलेसे अत्यन्त वमन हुवा करता है। अन्त को निम्नदिक्में अवरोध पड़नेपर पहलेसे वमन घट नहीं सकता। चिकित्सा-प्रथमावस्थामें अन्तावरोध पौड़ा अच्छौ तरह पहचानना सुकठिन है। अनेक रोगके साथ इसका धोका हो सकेगा। इसलिये कोई-कोई चिकित्सकका मत है, कि प्रथम-प्रथम एरण्ड तेल प्रभृति मृदु विरेचक औषध देनेसे क्षति नहीं होती। किन्तु अन्तावरोध पौड़ा ठहरनेपर फिर विरेचक औषध न खिलाना चाहिये। यह परामर्श किसी तरह युक्तिसङ्गत न होगा। रोग पहंचानने में ह रहते भी कदाच विरेचक औषध न दे। इस रोगमें विरेचक औषध खिलानेसे विशेष अनिष्ट आता है। अनेक समय रोगीका जीवन बचाना दुष्कर हो जायेगा। एरण्डतैल एवं उष्ण जलको पिचकारी लगानेसे किसौ अनिष्टको आशङ्का नहीं उठती। अतएव रोगको सच्ची प्रकृति समझने में सन्देह होनेपर अधिक परिमाणसे उष्ण जलको पिचकारी हो लगाना चाहिये। इससे दूसरा भी उपकार पहुंचेगा। उदर जलसे भर विवेचनापूर्वक धीरे-धौर ऊपरी ओर