पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५९७

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अन्धराजवंश ५६१ पराक्रम यथेष्ट रूपसे बढ़ा था। इसी समय भारतके साहित्य में प्रसिद्ध है। वह प्राकृत भाषामें 'गाथा पश्चिम प्रान्तमें शक, यवन और पह्नववंश धीरे-धीरे सप्तशती' नाम्नो आदिरस-घटित काव्य बना चिर- शक्तिसञ्चार करते रहे। महाक्षत्रप रुद्रदामको गिर स्मरणीय हो गये। उन्होंकी राजसभासे पेशाची नारगिरि-लिपिसे विदित होता, कि मौर्यसम्राट भाषामें बृहत्कथा और कातन्त्र या कलाप नामक अशोकके समय उनके साले यवनराज तुषास्य सौराष्ट्रके | संस्कृत व्याकरण प्रचलित हुआ। कहनेका अर्थ है, शासनकर्ता थे। किन्तु क्रमसे यवनोंका स्थानच्युत कर कि इन्हीं अन्धनपतिके यत्नसे संस्कृत और प्रचलित प्रथम पहुव और पौछे शकगण उनका राज्य दबा बैठे। देशभाषाको यथष्ट उन्नति हुई। इससे थोड़े हो उदीयमान शकशक्तिके साथ अन्धराजोंको कुछ काल काल बाद महायानमत-प्रतिष्ठापक प्रसिद्ध बौद्धाचार्य प्रतिद्वन्दिता करनी पड़ी थी। शुङ्ग और काण नागार्जुनका आविर्भाव हुवा। चीना परिव्राजक वंशके हाथसे मगध-राजलक्ष्मी अन्धवंशको अङ्कगता युअङ्गचुअं ई०के सप्तम शताब्दमें लिख गये हैं, कि होते भो सन्देह है, कि समस्त आर्यावर्तमें अन्ध शातवाहनराज नागार्जुनके पृष्ठपोषक थे। ब्राह्मणों प्रभाव फैला सके थे या नहीं। अल्पदिनमें ही शकवंश और श्रमणोंको इस एकसूत्रमें बांधनेके लिये ही धीरे-धीरे मथुरा पर्यन्त अधिकार जमा बैठे। आर्या- नागार्जुनने महायानधर्म फैलाया था। साम्यवादी वर्त और दक्षिणापथको दोनों ओर शकप्रभाव फैलते ब्राह्मण और श्रमणभक्त अन्ध राजगणके उत्साहसे हो देख अन्ध राज अपने पिटपुरुषोंको लोलास्थली कुन्तल नागार्जुनका मत अल्प दिनके मध्य हो दाक्षिणात्यमें और प्रतिष्ठान बचाने के लिये ही विशेष मनोयोगी फैल सका। नागार्जुन देखो। बने थे। सुतरां अल्प दिन बाद ही पाटलिपुत्र छोड़ नागार्जुनके समय ही सौराष्ट्रके शक क्षत्रप प्रबल गोदावरी-तौरस्थ प्रतिष्ठानपुर या पैठान नामक स्थान बन अन्धराज्यका अधिकांश निगल गये थे। इसी में उनको राजधानी उठ गयौ। सारनाथसे निकली समय नागार्जुन अन्ध राजसभा छोड़ उत्तर-भारतमें शकसम्राट कनिष्कको अनुशासन लिपिसे मालूम पहुंच शक-सम्राटके निकट सम्मानित हुये। शक- पड़ता, कि पूर्वभारतका कितना ही अंश शकोंके सम्राट्गणके यत्नसे हो उत्तर-भारतमें महायान मत अधिकारमें जा पहुंचा और प्राच्य-भारतमें भी शक फैल सका था। पूर्वोक्त हालके बाद मण्डलक शात- शासन चलानेको क्षत्रप रखा गया था। इसी समय कणि से चकोर शातकणि पर्यन्त अन्ध नृप व व के भारतवर्षको अवस्थाको देख कर ही वामन-पुराणमें राजपद बचाने के लिये व्यस्त पड़ गये थे।. मण्डल बताया है, शातकणि के नामसे मालूम होता. कि उस समय “पूर्व किराता यस्यान्ते पश्चिम यवनाः स्मृताः । अन्धवंशका प्रभाव इतना घटा, कि वह सौराष्ट्र के शक- अन्धा दक्षिणतो वौरा: तुरुष्काश्चापि चोत्तर ।" क्षत्रपगणकी अधीनता स्वीकार करनेको वाध्य हुआ। अर्थात् जिस भारतके पूर्वप्रान्तमें किरात, पश्चिममें अन्ध वंशीय १८वें राजा शातकणि से २२वें राजा यवन, दक्षिणमें वोर अन्ध, एवं उत्तरमें तुरुष्क अव चकोर शातकणि के मध्य एकमात्र १८वे नृपति पुरीन्द्र- स्थान या आधिपत्य रखते हैं। सेनको छोड़ दूसरा कोई भी अधिक कालतक राज्य सारांश यह है, कि कुषण-सम्राट कनिष्कका जिस भोग करनेको समथै न हुवा। शिवस्वामौ शातकणि ने वंशमें जन्म हुवा, पुराण और राजतरङ्गिणौमें वही शकप्रभाव मिटानको दीर्घकाल चेष्टा की। उसके बाद वंश तुरुष्क बताया गया है। प्रतिष्ठानसे श्रौषणको उनके प्रियपुत्र गोतमीपुत्र शातकर्णि पिताका अभि मुद्रा निकली थो। कुन्तल-शातकर्णि के पुत्र श्रीषैणने प्राय पूर्ण करने में समर्थ हुये। नासिकको गुहासे इन हो प्रतिष्ठानमें पहुँच फिर राजधानी बनायो। गोतमीपुत्र शातकणि को सुबहत् शिलालिपि निकली श्रीषेणके प्रपौत्र-पुत्र' हालका नाम भारतीय प्राचीन है। उसमें यह अन्ध • नृपति 'क्षत्रियदर्पमानमर्दैन,'