पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६७५

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अप्रस्तुतप्रशंसा-अप्राप्त हम दोनो “धन्याः खलु वनवाताः कद्वारस्पर्शशीतला: अप्रहत (सं० त्रि०) न प्रहन्यते स्म हलादिभिः; राममिन्दीवरश्याम' ये स्पृशन्तानिवारिताः।' प्र-हन-त, नज-तत्। १ अकष्ट, गैर मजरूवा, न रामके वन जानेपर दशरथ अफसोस करके कहते जोती हुयी। 'खिलाप्रहते समे।' (अमर) २ नतन, न हैं,-लाल कमलयुक्त सुगन्धित जलके स्पर्श से शीतल धोया हुवा, जो छांटा न गया हो, नया । ३प्रहत- जो वनका वायु इन्दोवर जैसे श्यामवर्ण रामको बराबर भिन्न, मारा न गया, जिस पर मार न पड़ी हो। स्पर्श करता, वही धन्य है। अप्रहन् ( स० वि०) न प्रहन्ति ; प्र-हन क्विप्, यहां दशरथ, रामको गोदमें लेकर स्पर्शसुख अनु. नज-तत्। अनुग्राहक, जो मारता न हो, मेहरबानी भव नहीं कर सकते, यही उल्लेख करना कविका करनेवाला। उद्देश्य है। अतएव दशरथकी बात न कहकर ऐसा अप्रहित (सं० त्रि०) अनुत्तेजित, बाहर प्रेरण न लिखा गया, कि वनको हवा रामको स्पर्श कर धना किया गया, अनाक्रान्त, बेतरगीब, न भेजा हुवा, जिस- होती है। सुतरां इसके द्वारा दशरथ राजाको अधना पर हमला न पड़ा हो। कहा गया। अप्राकरणिक (सं० त्रि.) प्रकरणे भव ठक्, ततो वाक्यार्थके सम्भव, असम्भव एवं उभयरूपता भेदका न-तत्। १ प्रस्तावसे बाहर, जिसको बात न चलो सादृश्यमूलक अप्रस्तुत-प्रशंसा अलङ्कार तीन प्रकार २ ग्रन्थके अंशविशेषसे अलग, जो किताबके होता है। ऊपर जो उदाहरण लिखा गया, वह सम्भव खास बाबमें न हो। विषयका है। असम्भवमें यथा- अप्राकृत (सं०नि०) प्रकृतेः स्वभावस्य इदं अण, "कोकिलोऽहं भवान् काकः समानकालिमावयोः । नञ्-तत्। १ अनैसर्गिक, असामान्य, मामूली, जो अन्तरं कथयिष्यन्ति काकली-कोविदाः पुनः॥" 'मैं कोकिल और आप काक हैं। खास या बड़ा न हो। २ अस्वाभाविक, जो असली न हो। आदमियोंके शरीर समान काले हैं। परन्तु हम ३ विशेष, खास, गैरमामूली। ४ संस्कृत, जो नाचीज़ न हो। लोगों में प्रभेद क्या है, यह सूक्ष्म मधुर अस्फट ध्वनिके जाननेवाले पण्डित ही कह सकते हैं। यहां प्रस्तुत अप्राग्रा (सं० त्रि०) न प्राग्राम, नञ्-तत् । अप्रधान, किसी दो व्यक्तिके न रहनेसे काक और कोकिलको अधम, मामूली, मातहत, कमीना। अप्राचीन (सं० त्रि०) १ नवौन, नया, हालका। बात कहना सम्भव नहीं हो सकता। वाक्य की सम्भव और असम्भव उभयरूपता, यथा- २ जो पूर्वका न हो, पश्चिमौय । अप्राज्ञ (सं.त्रि०) १ अशिक्षित, अबोध, नाखांदा, "अन्तम्किद्राणि भूयांसि कण्टका बहवो वहिः । कथ' कमलनालस्य माभूवन् भङ्गरा गुणाः ॥" जो लिखा-पढ़ा न हो। २ चैतन्यशून्य, बेहोश। जिसके भीतर बहुत छेद और बाहर बहुत कांटे अप्राज्ञता (सं. स्त्री०) शिक्षाका अभाव, अज्ञान, हैं, उस पद्मनालके गुण अर्थात् डोरे तोड़े क्यों नहीं अचैतन्य, नादानी, बेहोशी। जा सकते? अप्राण (सं०वि०) जीवनशक्तिरहित, मृत, बैजान, मुर्दा । यहां कविके प्रक्कत वर्णनका विषय यह है-जिस अप्राणिन, अप्राण देखो। आदमौके बहुत छिद्र अर्थात् अनेक दोष और अप्राधान्य (सं. क्लो०) नोचता, प्राधान्यका अभाव, बहुत कण्टक अर्थात् अनेक शत्रु हैं, उस मनुष्यके अधौनता, बुर्दबारी, मातहतो, बड़े न होनेको हालत । गुण अर्थात् यश आदि नष्ट हो जाते हैं। इस प्रस्तुतके | अप्राप्त (सं० वि०) न प्राप्तम्, नत्र-तत्। १ अलब्ध, आरोपव्यतिरेकमें अप्रस्तुत कमलनालके भौतरी डोर पाया न गया, जो हाथ न लगा हो। २ अनुपस्थित, "तोड़नेका हेतु सम्भव नहीं। कांटा तोड़ने में हेतुका अनागत, न पाया हुवा, जो हाज़िर न हो। ३ प्रमा- सम्भव हो सकता है। णान्तरमें न मिलनेवाला, जो साबित न हुवा हो। 168