पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७०

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अक्षरलिपि पहले तो ६३ या ६४ अक्षर वेदाङ्गमें स्थिर होते, किन्तु वेदमें उनका प्रयोग रहते भी लौकिक माषामें कितने ही अक्षर छूट जाते हैं । ललितविस्तरसे हम जान सकते हैं, कि बुद्धदेवने केवल ४५ अक्षरलिपिको ही अभ्यास किया था- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, श्री, अं, अः । कख ग घ च ज झ ञ। टठडढण। तथदधन। 3 प फ ब भ म य र व। श ष स ह क्ष । (ललितविस्तर, १० अध्याय) आश्चर्यका विषय है, कि उक्त अक्षरमालाके बीच उत्तर-भारतमें प्रचलित ऋ ऋ ल ल और दाक्षिणत्यमें प्रचलित ल ल और ल, यह पांच वर्ण एकबारगी ही नहीं हैं। फिर भौ, ललितविस्तरको गाथाके बीच सिवा लुके दूसरे चार अक्षर व्यवहृत हुए हैं। ललितविस्तर में अकारादि अक्षरान्त उक्त ४५ अक्षर- मालका गृहीत हुई हैं। तन्त्रमें ५० मातृका और ४२ भूतलिपि निर्दिष्ट हैं । यथा- “कुण्डली भतसाणामश्रियमुपेयुषी। विधामजननी देवी शब्दब्रह्मवरूपिणी । गुणिता सर्वगावेण कुण्डली परदेवता ।" (सारदातिलक) 'विचत्वारिंशदिति भूतलिपिमन्त्रमयो, पञ्चाशदिति मात्रकालिपिः । (तट्टीका) जो हो, उत्तर-भारतके विभिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न शताब्दियोंके समय जिस प्रकारको लिपि चलती थी, दूसरे पृष्ठमें उसको तालिका दे दी गई है। मालूम होता है, कि अशोकलिपिसे ही क्रमशः भारतको सब लिपियां परिपुष्ट हुई हैं। प्रज्ञापनासूत्र नामक जैनियोंके उपाङ्गमें लिखा है- "जेणं अद्धमगहाए भाषाए भासेन्ति जस्स य नं वम्मी विपवत्तद्रव !” यानी जिससे अद्धमागधी भाषा प्रकाश को जाय, वही ब्राह्मोलिपि है। पहले ही कह चुके हैं, कि अशोकसे पहले जब ब्राह्मो प्रभृति अट्ठारह लिपि प्रचलित थीं, तब भी मगधलिपि, अङ्गलिपि प्रभृति नामकरण न हुआ था। हकारं पञ्चभिर्युक्तमन्तस्थाभिश्च सयुत । औरस्यं तं विजानीयात् कण्डमाहुरसम्भृतम् ॥” (पाणिनीय-शिक्षा) उस समय जैन-धर्मशास्त्र भी सुग्राचीन बाझोलिपिमें ही लिखे जाते थे ।मालूम होता है, कि इसौसे पाश्चात्य प्रत्नतत्त्वविदोंने मगधादि स्थानों में प्रचारित अशोक- लिपिको भी ब्राह्मोलिपि कहकर ही माना है। सन् ई०को पञ्चम शताब्दिमें सङ्कलित जैन-धर्म- शास्त्र नन्दोसूत्रके बोच छत्तीस तरहकी लिपिका उल्लेख मिलता है। जैसे-१ हंस, २ भूत, ३ यक्ष, ४ राक्षस, ५ उड्डौ, ६ यावनी, ७ तुरुष्की, ८ कौरी, द्राविड़ी, १० सैन्धवी, ११ मालवी, १२ नड़ी, १३ नागरी, १४ पारसौ, १५ लाटी १६ अनिमित्त, १७ चाणक्यो, और १८ मौलदेवी। तन्दोसूत्रके मतसे यह अट्ठारह लिपि ऋषभदेवके दक्षिण हाथसे प्रकाशित हुई थीं; इन्हें छोड़ दूसरी अट्ठारह प्रकारको लिपिका भी उल्लेख देखा जाता है ; जैसे-१८ लाटी, २० चौड़ी, २१ डाहली, २२ काणडी, २३ गुजरो, २४ सोरठ २५मर- हठो, २६ कोङ्कणो, २७ खुरासानो, २८ मागधी, २८ सैंहली, ३० हाड़ो, ३१ कोरी, ३२ हम्बोरी, ३३ परतोरी, ३४ मसी, ३५ मालवी और ३६ महायोधौ । नन्दीसूत्रके रचना-कालमें यह छत्तीस प्रकारको लिपि भारतके बीच प्रचलित थीं। नन्दीसूत्रके मतसे देश-विशेषके नामानुसार इन सब लिपियों और भाषाओंका नाम रखा गया है। सन् ई०को १२वीं शताब्दिमें शेषकष्णने छः मूल प्राकृत और सत्ताईस अपभ्रंश भाषाओंकी बात लिखी थी। इन सब प्राकृत भाषाओं की तरह उस समय विभिन्न लिपि भी प्रचलित थीं। शेषवष्णको प्राकृतचन्द्रिकामें ऐसे नाम पाये जाते हैं-१ महाराष्ट्री, २ अवन्ती, ३ सौरसेनी, ४ अर्द्धमागधो, ५ वाह्नीको, ६ मागधी, ७ वाचण्ड, ८ लाट, ८ वैदर्भी, १० उप- नागरी, ११ नागरी, १२ वावरी, १३ आवन्त्य, १४ पाञ्चाल, १५ टाक, १६ मालवी, १७ कैकय, १८ गौड़, १८ उड़, २० देव, २१ पाश्चात्य, २२ पाण्ड्य, २३ कौन्तल, २४ सैंहल, २५ कालिङ्गय, २६ प्राच्य, २७ कर्णाटो, २८ काञ्ञ्य, २८ द्राविड़, ३० गोजर, ३१ आभीर, ३२ मध्यदेशीय और ३३ वैडाल। देवनागर देखो।] भारतवर्षमें इस तरहको नाना लिपि चलते भी सब लिपियोंके ठीक रूपको निर्देश करना बहुत कठिन