'कर्ण १२१ शरीरका छिद्रसमूह, बहत् एवं सूक्ष्म सातसकल, शम्वकाकार गदर है। उसके बहिर्गावमें डिवाकार गवाच और अभ्यन्तरमें क्षुद्र क्षुद्र गोलाकार छिट्र रहते शब्दोर कण प्रान्तरिक्ष पदार्थ है। हैं। उनसे श्रोत्र सम्बन्धीय मायुका स्पन्दजनक सूत्र- कर्ण के अवयव हमने एक एक कर लिख दिये सकल भीतरको सहकता है। हैं। अब देखना चाहिये-कण से कैसे सुनते और उक्त गोलाकार नली तीन है। उनके उभय पाखों में कर्ण के यन्त्र कैसे चलते हैं। युरोपीय वैज्ञानिकों के मध्य किसी किसीके मतानु- छोटे-बड़े हार होते हैं। सार शब्द कणं गोधर होनेसे पूर्व प्रथम वायुद्वारा शम्बकाकार गदर देखनमें शवुक जैसा लगता कर्णशक लौमें पहुंचता है। उसी क्षण वायुके है। वह कर्ण विवरका अग्रवर्ती है। प्रभावसे उसके तरल पदार्थका आणविक कम्पन होने अस्थिमय कोमन विवरहार और अर्धगोलाकार लगता है। शब्द सञ्चालित होते ही वायु द्वारा नलोके मध्यका कोमन्न अंश 'कान्का चक्कर' (Mem- ढक्काको झिली हिलती है। वायुसे शब्द जितने बार braneus labyrinth) कहाता है। अस्थिमय चक्कर इधर उधर चलता, ढक की झिल्लीका भी उतने ही झिल्ली के चक्करमे आकार प्रकार में मिलता है। फिर बार उत्कम्पन उठता है। फिर मुहरास्थि हिलइल मो समयके आयतनमें अन्तर है। दोनों चक्रगेमें पताकस्थि और डिब्बाकार गवाक्षको मिलीको पेरिनिम्म ( Perilymph ) नामक एक तरल पदार्थ जगा देता है। तत्क्षणात् ढकाको पेशीसे मिलीका रहता है। मिलोके चक्कर में एण्डोलिम्य (Ando- वितान कांपता है। ढमाके गहरमें वायु. दो lymph) नामक एक दूसरा तरल पदार्थ भी है। फिर प्रकार कार्य सम्पादन करता है। प्रथमत: वह उसके किसी किसी स्थान विशेषतः विवरहारवाले गवाचको झिल्लोके वहिर्भागमें रोत्यनुसार ताप पहुँ'- स्नायुके प्रान्तभागमें क्या मनुष्य क्या निकष्ट पशुके चाता है। उससे मिलीको स्थितिस्त्रापता नहीं चने जैसा एक पदार्थ देख पड़ता है। मानव, स्तन्य बिगड़ती। द्वितीयतः ढकाके गहरमें वायु पुसते पायी 'जन्तु, पक्षी और सरीसृपके मध्य बना मिली क्षुद्रास्थिमाता चलने लगती है। शब्दविज्ञानके अनु. एक वुझनी (Otoconia) रहती है। सार वायुसंस्पर्श से क्षुद्रास्थि में शब्द उठता है। विवरकै हारांशमें दी परदे होते हैं। जपरवाला कर्याभ्यन्तरस्थ विवरमें तीन प्रकार शब्द पहुंचता विञ्चित् दौधै यौन डिम्बाकार है। अंगरेजीमें उसे है-प्रथमतः अस्थिकीणो, दितीयतः ढकागहरके युट्रिकुलन या कामनसिनस ( Utriculus or com. वायु और तीयतः मस्तकास्थिके मध्यसे । monsinus) कहते हैं। अपर देखने में प्रथमसे कर्ण के भीतरी विवरहारको दो श्रवणेन्द्रिय का किञ्चित् क्षुद्र और गोलाकार है। वह नीचे रहता मूलयन्त्र कहते हैं। पश्वादिक वाण में अपरांश न उसका नाम. कोषाणु, ( Sucerlus ) है। रहते मी उक्त अंग तो होता ही है। सुश्रुतके मतसे प्रत्येक कार्य में एक एक शृङ्गारश वृहत्काय जन्तुमें कार्य के मध्यभागपर एक विवर- सन्धि ज्ञाती है। अस्थि दो रहते, जिन्हें तरुण हार देख पड़ता है। वहां कानको बुकनी मिलनेसे कहते हैं। फिर कई में २ पेयो, १० शिरा पोर शब्दशो विशेष सुविधा मिलती है। उनके पास पहु- ६ धमनी हैं। उन छह धमनी २ वायुवाहिनी, चते हो शब्द झनझनाने लगता है। उता शब्द विवर- २ शब्दागिी और २ शब्दकारिणी होती हैं। हारको झिनो और अर्धगोलाकार नलीको प्रसारित चरक कर्ण को प्रान्तरीच पदार्थ माना है। अंश (Ampulls) तथा स्नायुमें सच्चारित होता है। "यदिविनमुच्यते महान्ति चाणूनि च खोतांसि तदन्तरिच शब्दा यौवव।" अर्धगालाकार ननीसमूहको दोवता, विस्त ति (घरक, शारीरस्थान ७०) । और उच्चता द्रष्टव्य है। उसासे शब्दकी गति समझ Vol. IV. 31 a .
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