पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१२२

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कर्ण. १२३ । अब शोध 'कसे सहा? ब्रामय कभी इसप्रकार सह नहीं। देशीय राजगण भौर अपरापर सभ्य तथा पसभ्य जातिको जीत पति अल्पकालमें ही हस्तिना लौट सकता । अतएव शीघ्र सत्य सत्य कहो, तुम कौन हो। कर्ण ने अवनत हो विनीत भावसे उत्तर दिया, पाये । दुयो धनके पक्षपातियोंने कर्ण को शत शत धन्य- 'गुरो। मुभी क्षमा करो। मैंने मिथ्या कह पापक वाद दिया था। फिर दुर्योधनने वैष्णव यज्ञका अनु. 'निकट बड़ा ही अपराध किया है। मैं ब्राह्मण नहीं, ठान किया। उस समय कर्ण ने उनसे कहा था,- सामान्य सूतपुत्र इं। सूतकन्या राधा मेरी माता 'पानी मुंहमांगो चीज हम याचकको देंगे। यही होती हैं। मेरा नाम कर्ण है।' उस समय हमारी प्रतिज्ञा है। जब तक हम अजुनको मार परशुरामने ऋड हो कहा था, 'देखो कर्ण। तुमने न सकेंगे, तब तक इसी व्रतको पालन करेंगे।' ब्रह्मास्त्र लेनको हमसे प्रतारण को है। इसलिये युद्ध वृषकेतु नामक उनके एक पुत्रने जन्म लिया। काल उस अस्त्रका स्मरण तुम्हें न रहेगा। एक दिन थोकणने दानपरीक्षा करने को वह ब्राह्मण- "हमारे सम्मुखसे चल दो।' के वेश कर्ण से साक्षात् कर कहा, 'हम तुम्हारे कर्ण इस्तिनाको चौट आये। कुछ दिन पीछे वृषकेतु पुत्र का मांस खाना चाहते हैं।' कर्ण ने 'वह दुर्योधन के साथ कलिष्ट गये। वहां कलिङ्गराज वही किया था। उनकी स्त्रीने वृषकेतुका मांस रांध चिवादको कन्याका स्वयम्बर था। स्वयम्बरसभामें वाष्णके सम्मुख खानेको रख दिया। क्वणने कर्ण के दुर्योधनने अपने वोरोंके साहाय्यसे राजकन्याको हरण आचरणसे अत्यन्त सन्तुष्ट हो मृतसञ्जीवनी विद्याके किया। उस समय कर्ण के साथ जरासन्धका घोर युद्ध प्रभावसे वृषकेतुको फिर जिलाया। इसी अलौकिक "हुवा था। उसी युद्ध में जरासन्धने वीरत्व दर्शनसे दानके लिये 'दाताकण' नाम पड़ गया। सन्तुष्ट हो कर्ण को मालिनी नगरी सौंप दी। अतःपर एक दिन निद्वितावस्थामें कर्षने वा देखा,-सूर्य कर्णका विवाह हुवा। पत्नीका नाम पद्मावती था। सामने खड़े कर रहे हैं,-'कर्ण ! इन्द्र पाण्डवगणके कर्ण पाण्डवोंको मार डालने के लिये सर्वदा दुयी हितसाधनको ब्राह्मणके वेश तुमसे कवच और कुण्डल धनसे कुपरामर्श किया करते, किन्तु इतकार्य हो मांगने पायेंगे। अतएव उनको कवच कुण्डल देनेमे 'न सकते थे। भीम कर्ण के आचरणसे असन्तुष्ट हो सावधान !' किन्तु उन्होंने स्वपमें उत्तर दिया,- कभी कभी निन्दा कर बैठते। वह कर्ण को प्रसव 'प्राण नाते भो हम अपनी प्रतिज्ञा न छोड़ेंगे। फिर होती थी। उन्होंने घोषयात्राको दुर्घटना पौछे एक सूर्यने उनसे कवचकुएहलके बदले इन्द्रको शक्तिले 'दिन दुर्योधनसे कहा, 'मिन! इमारी एक बात लेनेको पनुरोध किया। प्रभात होते इन्द्र ने ब्राह्मण के 'आपको सुनना पड़ेगी। भीम सर्वदा हम लोगोंकी वेश था कर्ण से कवच कुण्डल मांग थे। कर्ण ने कहा, निन्दा पौर अर्जुनको प्रशंसा किया करते हैं। विशे. 'देवराज। हम आपको पइंचानते हैं। पाप कवच. पतः भापके सामने वह हमारी अवता करते हैं। कुण्डल लीजिये, किन्तु अपनो शव मर्दिनी शति दे अब हमें अनुमति दीजिये। हम अकेले ही समस्त दीजिये। इन्द्र इस पर सम्मत हुये। अन्सको पृथिवी जीत लें। जाते समय इन्द्र बोस उठे,-'कर्ण। इस लिसे कम दुर्योधनको अनुमतिसे कर्ण दिग्विजय करने शत शत शन, मार डालते थे। किन्तु पापके हाथसे 'निकले थे। वह द्रुपद, भगदत्त एवं वङ्ग, कलिङ्ग, छटने पर एक पत्र को मार यह हमारे पास चली मण्डिक, मिथिला, मगध,ककैखण्ड, अवन्तीपुर, अहि श्रावेगी।' “च्छन, वन्स, केरल, मृत्तिकावतो, मोहन, त्रिपुर, इधर पाण्डवोंका अज्ञातवास पूरा हुवा। उन्होंने कोथल, रुकी, चेदि, अवन्ति, म्लेच्छ, भद्रक, रोहि पाश्चालराज पुरोहितको सन्धिके लिये धृतराष्ट्र के निकट तक, प्राग्नेय, मालव, भयक, पाटविक प्रसूति नाना भेजा था। भीम पाण्डवोंका कुशल संवाद पूछ करने