पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१२३

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-१२४ कर्ण लगे,-'पाण्डव परम धार्मिक हैं। इसीसे युद्धमें । प्रतिज्ञा न तोडूंगा।' भोपने कहा,-'तो स्वर्ग काम मात्मीय कुटुम्बको न मिटा उन्होंने सन्धिका प्रस्ताव होकर लड़ो। कूट युइसे अलग रहो।' पठाया है। वास्तविक अर्जुन की भांति दूसरा योचा भोप्यके पीछे द्रोणाचार्य कौरवोंके सेनापति हुये। पृथिवी पर देख नहीं पड़ता। कौरव पक्षमें उनके कणं ने उनके अधीन अनेक बार युद्ध किया था। सम्मुग्नु जानवाला कौन वीर है।' यह बातें। उसी समय उन्होंने बात क अभिमन्युको कूट युद्ध कर्ण सह न सके। उन्होने भीषको बड़ी निन्दा मारनेका परामर्थ उठाया और इस कार्य में यथेष्ट उड़ायो। पन्तको कर्थ और शकुनिके परामर्शसे साहाय्य पहुंचाया। सन्धि रह गयो। कर्ण एकानो शक्ति हारा अर्जुनको मारना चाहते कुरुक्षेत्रके महासमरमें प्रथम भीम कौरव-सेनापति थे। किन्तु उनके मनको प्राथा मनमें ही रह गयो। बने थे। उन्होंने अपनी सेनाका सुप्रबन्ध बांध टुयों- भीमनन्दन घटोत्कच कुरुमै न्यो दबनमें दौड़ वर्ण के धनसे कहा,-'देखो। कर्ण नीच जाति और क्षुद्र सामने आये थे। उन्होंने अपने बचाने के लिये एकानो प्रति है। वह परशुरामकै निसट अभिसप्त हुवा भक्ति छोड़ घटोत्कचको मार डाला। दोपके निहत और कवचकुण्डल खो चुका है। ऐसे मामान्य व्यक्तिको होने पर कर्ण कुरुसैन्यके सेनापति बने। उनके अधरथी ही विवेचना करना उचित है।' यह वात सारथी गल्य रहे। यथा समय महावीर कर्ण ससैन्य सुन का का सर्वाङ्ग जल उठा। उसी समय उन्होंने समरक्षेत्रमें उतर पड़े। उनको युद्धनीति और वीरता प्रतिज्ञा की,-'जितने दिन भीम जीवित रहेंगे, उतने देख पाण्डवपक्षमै हाहाकार उठा। किन्तु कर्ण से दिन हम कभी युद्दमें अस्त्रधारण न करेंगे।' यही सारथी शब विमुख थे। कर्ण अर्जुनके मारनेको कहकर उन्होंने रणनेव छोड़ा था। जितना पास्कानुन लगात, गन्य उतना हो प्रति- दश दिन युद्ध होने पीछे कुरुपितामह भोपा गर वाद कर अर्जुनको प्रशंसा सुनाते और उनकी शव्यापर सो गये। कर्ण ने एक दिन रात्रिकालको निन्दा करते थे। किन्तु कनै निज बाहुबन्नसे उनसे मिल कहा था, 'आप सर्वदा जिसको निन्दा ७७ प्रभद्रक, २५ पाञ्चाल, भानुदेव, चिवसेन, सेना- करते रहे, मैं वही कर्ण ई। भौमने इन्हे देख विन्दु, तपन, सूरसेन चेदि और अपरापर स्थानके रक्षकों को हटाया, पीछे सनेह यह कहते कर्णको असंख्य सैन्यको मार गिराया। फिर उन्होंने अर्जुन गले लगाया, 'हमने नारद और व्यासके मुख तुमकी व्यतीत युधिष्ठिरादि पाण्डवो भी हराया। कर्ण ने कुन्तीका पुन सुना है। पाण्डवगणसे द्वेष रखने कुन्तीके निकट अर्जुनको छोड़ अपर किसी पाण्डवक पर ही हम तुम्हें कुछ कड़ी वात बोल देते थे। वास्त न मारने की प्रतिज्ञा की थी। इसीसे युधिष्ठिरादि विवा तुम्हारी तरह दाता और ब्रह्मनिठापर दूसरा देख पाण्डव हार कर भी नीते रहे। नहीं पड़ता था। तुम हमारा पूर्व भाव दूर अन्तको अर्जुनके साथ कार्य का घोरतर युद्ध हुवा। हैं। अब तुम हमारी मानो, तो अपने सहोदर पाण्ड. उस युद्दमें श्रीकणके कौगलसे वह अन्तिम शय्यापर सो गये। (महाभारत) वोंकी पोरसे युद्ध ठानी। तेजस्वी कर्ण ने उत्तर दिया, 'आपके कहनेस कर्णज्ञा प्रथम नाम वसुषेण रहा। पालक पिता अब मेरे कुन्तीपुन होने में कोई सन्देह नहीं। किन्तु सूतने उनशा यही नाम रखा था। पीछे पृथक पृथक पितामह ! इतने दिन में दुर्योधनके ऐखयेने ही कार्यके अनुसार कर्ण, वैकर्तन, अर्कनन्दन, अराज, प्रतिपालित हुवाई। फिर उनको मैंने एक बार अनेखर, चम्पे , चम्याधिष, अङ्गाधिप पोर घटोत्- पाखास भी दिया था। अब मैं कैसे उन्हों प्रिय बन्धु कचान्तक प्रकृति नाम हुवा। प्रतिपालक पिता तथा पालिका माताके परिचर्यानुसार कर्ण को लोग सूतपुत्र, दुर्योधनसे लडूं। प्राय जाना अच्छा है। मैं अपनी हो गया