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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१२९

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कर्णवन्धनाकृति-कर्णरोगविज्ञान .५५'३० और देशा० ८२° ४४ पू० पर अवस्थित है।। कण मोचक (सं० पु. ) कण स्फोटा, कानको लो। कर्णफुलो जयन्ताद्रिसे निकल दक्षिणमुख वनोपसागरमें | कर्ण मोटा (स. स्त्री० ) वर्दू रखन, बबूल का पेड़। जा गिरी है। इसके दक्षिण कूलपर चट्टग्राम नगर कर्ण मोटि, वर्ष मोटो देखो। और-बन्दर है। प्रधान शाखा चार है-कासालस, कर्ण मोटी (सं० स्त्रो०) कर्ण कर्णोपक्षनित रोगविशेष चिङ्गाड़ी, कपताई और रडियान। मोटयति नामयति, कर्ण मुट्-इन्-डोप। चामुण्डा देवी। कर्णफुलोके उत्पत्तिस्थान पर नीलकण्ठ नामक का मोस्ट (सं० पु० ) कर्ण स्फोटा, एक वेन । शिवलिङ्गा प्रतिष्ठित है। इस नदीमें नहानसे पुण्य | कर्ण युग्मप्रकोण ( सं० लो० ) नृत्यचानकविशेष, हाता है। (भविष्य प्रधषण १५८) नाचको एक चाल। इसमें हस्तहयको घुमा पार्श्वक कर्ण बन्धनाकति (सं० स्त्री०) कर्ण वधके अनन्तर कर्णके सम्मख खाते हैं। -बन्धनको प्राकृति। यह पञ्चदश विध होती है- कर्ण योनि (सं० वि०) कर्ण: योनिः स्थानमय, १ नमिसन्धानक, २ उत्पलभेद्यक, ३ वस्रक, ४ पास बहुव्री०।१कर्ण ग्राध,कानमें पड़ने लायक । २ कर्ण से शिम, ५ गडकर्ण, ६ पाहाय, ७ निधिम, ८ व्यायो- उत्पन्न, कानसे पैदा। जिम, कपाटसन्धिक,१० अधकपाटसन्धिक,११ संक्षिप्त, | कर्ण रन्ध (सं० पु०) कर्णस्य रन्धः, -तत्। वर्ष- १२. होमकर्ण, १३ वलोकर्ण, १४ यष्टिक और गत छिद्र, कानका छेद। .१५ कालौष्टक। कर्णराज-गुजरातके अनहिलवाड़वाले एक राजा। कर्णभूषण ( स० ली.) कर्ण भूषयति, कणं भूष यह भोमराजके एक पुत्र थे। १००३ ई०को भीमके त्य। १ कणांलवार, कानका वर । २ अशोकक्ष। स्वर्गारोहण करने से इनपर राज्यका भार पड़ा। भासन- ३ नागकेयर। नीतिक गुणसे राज्यके सामन्त और पावर्ती राजा कर्णभूषा (सं० स्त्री.) कर्ण भूषयति, कर्ण भूष कर्णराजके वशीभूत हुये। इन्होंने रूपमें विमुग्ध हो पच्-टाप। कर्णभूषण, कानका जेवर। कदम्बराज जयकेशीको कन्या मयानलदेवीसे विवाह कम्मर .(सं० पु० ) मत्स्यभेद, एक मछली । किया। प्रथम पुत्र न होने से इन्होंने लक्ष्मौदेवीका (Silựrus upitụs) ध्यान लगाया था। फिर चमोके वरसे मयान देवी कर्ण मल (सं० ली. ) कर्णस्य मलम, ६-तत्। कर्ण- पुत्रवती हुने ( १९६३ ई०)। वृद्धावस्थामें इन्होंने अपने गूथ, खूट, कानका मैल। पुत्र जयसिंहको राज्य सौंप वानप्रस्थ अवलम्बन किया। कण मुकुर (सं० पु०) कणे सुकुरः दर्पण इच, उपमि० । कर्ण रोग (स'. पु. ) कर्णस्य कर्ण जातो रोगः । कर्ण- कर्णालङ्कार विशेष, कानका वाला। व्याध, कानकी बीमारी। यह २८ प्रकारका होता कर्ण मुख (स.नि.) कर्ण के अधीनस्थ, कप के पोछ । हैकर्ण शून्ल, कर्णनाद, वाधिर्य, कर्णक्षेड़, कर्ण साक, रहनेवाले। कर्णकण्डु, कर्णगूथ, कर्ण प्रतीनाह, जन्तुकर्ण, कर कण मूल (सं० क्लो०) कस्य मूनम, ६-तत् । पाक, पुतिकर्ण, ४ प्रकार प्रशं, ७ प्रकार प्रर्वद. कर्ण का मूलदेश, कानको जड़। २ करोगविशेष, ४ प्रकार शाय और २ प्रकार विधि। (देशक निघण) कानको एक बीमारी। इसमें कानको जड़ सूजती है। कर्ण रागप्रतिषेध (सपु०) कर्ण रोगाणां प्रतिषेधः कर्णमूलीय (सं० वि०) कण मूल-ढन । कथं मूल शमनोगया यत्र, बहुव्री। १ करोगचिकित्सा, सम्बन्धीय, कानको जड़के मुतालिक । कानी वामागैका इलाज। २ सुश्रुतसंहितामा एक कर्णमृदङ्ग (सं०१०) कानको भीतरी मिलो। यह अस्थि- (सं. बी.) कगत व्याधिका .पर चढ़ा रहता है। इसी पर जब कम्पित वायुका कर्ण रोम-वज्ञान पाघात सगता, तब जीवको शब्दका ज्ञान उपनता है। निदान, कनिमोनेवाली बीमारीत्री वांच! अध्याय