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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१३२

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1 कर्णविटक-कर्णव्यधविधि "वसायक्रममङमचाम्वविधापकर्णविट् । "कपरन्ध, रवछाया न विभेदयजन्मनः । माथु इषिका से दो हादशैते नृशां मला:" (मनु) दं दृदा विलयं यान्ति पुरचौघाय पुराननाः । (हमाद्रिधन देवलवचन) जिस ब्राह्मणके कर्णरध में सूर्यका किरण नहीं कर्ण विट्क (सं० वि०) कर्ण विविशिष्ट, जिसके धुसता, उसको देखनेसे प्राचीन पुण्यशील व्यक्ति भी खट रहे। नरक पहुंचता है। कर्णवाविधि देखो। कर्ण विधि (स'. पु.) कर्ण स्रोतोगत स्फोटक, कानका मीतरी फोड़ा। यह दोषज और आगन्तुज- कर्णवेधनिका (सं० स्त्री०) विध्यते ऽनया, कर्ण विध करणे ल्यु ट् स्वार्थ कन्-टाप पत इत्वम् । १ वारिकर्ण विविध होता है। वैधनास्त्र, हाधोके कान छेदने का मौजार । २ कर्णवेध. का विधि (सं० पु०) कणखेदनादि, कानमें तेन्ज नास्त्र, कान छेदनेका प्रौजार। वगैरह डालनेका तरीका। कणवेधनी (सं० स्त्री०) विधते ऽनया, कर्ण-विध कर्णविवर (सं. क्लो०) कच्छिद्र, कानका छेद। करणे व्युट-डोय । कर्ण वेधको सूची, कान छेद- कर्णवध (सं० पु०) कर्णयोः, कर्णस्य वा वेधः, ६-तत् । नेकी सूयो। संस्कारविशेष, कनछेदन। इसमें शास्त्रोक्त विधानके कर्णवेष्ट (सं० पु.) की वेष्टयति, कर्ण-वेष्ट-अच । अनुसार कान छेदना पड़ते हैं। जन्मके माससे ईठे, १ कुण्डल, वाची, पात। २ द्वापर युगकै एक राजा । ७, ८, १२वें या १६वें महीने, वुध, वृहस्पति, शुक्र (भारत, पादि०१०) वा सोमवार, द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी, कर्णवेष्टक (म. क्लो) कर्णो वेष्टयति, कर्ण -वेष्ट- हाटशी अथवा त्रयोदशीको ब्राह्मण तथा वैश्यका रौप्य, खुन्। १ कुण्डल, वाला। २ शिरस्त्राणका प्रालम्ब, क्षत्रियका खणं और शूद्रका नौशलाका द्वारा कर्ण- टोपीका दामन। इससे कान बांधे जाते हैं। वैध किया जाता है। जन्ममास, चैत्र एवं पौष, युग्म- | कर्ण वेष्टकीय (सं. वि. ) कर्ण वेष्टक-ढन् । कर्ण- वत्सर, हरिके शयनकाल, दूषित सूर्य, कृष्णपक्ष, वेष्टक सम्बन्धीय, वाले या टोपीके दामन, सरोकार जन्मनक्षत्र, दिवसके पूर्व भाग पौर रात्रिकालमें कर्ण- रखनेवाला। वेध करना न चाहिये। (मदनरव) उत्तरायण सूर्यका कर्ण वेष्टन (सं० लो०) कर्णी वेष्टाते ऽनेन,कर्ण वेष्ट-त्य ट। समय कर्ण वध लिये अच्छा है। दक्षिणायनमें यह १कुण्डल, वाला। २ शिरस्त्रापका मालम्ब, टोपीका संस्कार करना न चाहिये। (गर्ग) एक पिताके दो दामन। पुत्रका कर्णवेध संस्कार न होते पुनार पुत्रोत्पत्तिको | कर्ण व्यध (• पु० ) कर्णवेधन, कनछेदन। ३ कर्ण का वेटन, कान लपेटने का काम । सम्भावना प्रानेसे दोनोंम पद वर्ष वालेका कर्ण वध कणं व्यविधि (स. पु०) कर्ण व्यधस्य कर्णवेधस्य कर्तव्य है। ऐसे समय ज्येष्ठ कनिष्ठका विचार पाव- श्यक नहीं। कारण कर्णवेधरहित तीन पुत्र हो विधिः, ६-तत्। १ कर्णवेधका नियम, कनछेदनका जानेसे 'कर्ययटका' दोष लगता, जो अतीव कुत्सित तरीका। २ रक्षाभूषएको बालकके कर्णवेधका सु- तोत नियम। पाठ वा सप्तम मास, प्रशस्त तिथि करण ठहरता है। (मलमासनत्र ) बाह्मणके करम अङ्गुष्ठके मुइत तथा नक्षत्रयुध दिवस मङ्गल कार्य एवं खस्ति- यव प्रमाण प्रशस्त छिद्र रहना चाहिये। वाचन कर धात्रीके कोड़में वालकको बैठाना पौर "पाठमावसपिरी को न भवती यदि । विविध क्रीड़ाद्रव्य द्वारा सान्वना दिलाना चाहिये। सम्मे याहन दातव्यं दानवे दासुरं भवेत् ॥” (निर्णयसिन्धु) फिर भिषक् वामहस्त द्वारा खींचकर पकड़ और सूर्य कर्णम अङ्गुष्ठके यव प्रमाण छिट्र न रहते कोयो किरणमें दैववत छिट्र लक्ष्यकर दक्षिण हस्त सूक्ष्म कैसे यारका अधिकारी हो सकता है। उसके करनेसे सूचीसे सरल भाव पर कान छेदता है। पुत्रका दक्षिण बाद ममुरका भोज्य बन जाता है। और कन्याका वाम कणं छेदा जाता है। वेधके बाद Vol. IV. 34