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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१३४

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नाना- कर्णसू-काट पुरातत्वविदने उसोका नाम 'कर्ण सुवर्ण' रख लिया । कर्ण चूटो (स'. स्त्री.) कीटविशेष, एक कौड़ा। है। उक्त चीन-परित्राजकके वर्णनानुसार-यह जन- कर्ण स्फोटा (सं० स्त्री०) कर्णस्य स्फोटेव सोटा पदं दैध्य प्रस्थमै प्रायः १४०० या १५०० लि (१२५ विदारणं यस्याः । लताविशेष, एक वेल। इसका कोससे अधिक) है। इसका राजधानी कोयी २० लि संस्कृत पर्याय-श्रुतिस्फोटा, त्रिपुटा, कृष्णतण्डुला, (डेदकोस) लगती है। यहां बहुत लोग रहते हैं। चित्रपर्णी, कोपलता, चन्द्रिका, और अर्धचन्द्रिका है। सभी शान्त, शिष्ट और सम्पत्तिशाली हैं। निम्नभूमि राजनिघण्ट के मत यह कटु, तिक्त, शोतल और सर्व 'उर्वरा है। नियमित कृषिकार्य चलता है। प्रकार विपरोग, ग्रहदोष, भूतादिवाधा तथा पौड़ा- 'विध महा और उपादेय कुसुमभूषणसे यह जनपद नाशक होती है। अलत है। जलवायु मनोरम है। अधिवासी विद्यो- कर्ण साव (' पु) कत्र कर्ण योर्वा साव: 'साही देख पड़ते हैं। (उस समय) यहां दश सङ्घाराम पूयादि-निःमरणम्, ६-तत् । कर्ण रोगविशेष, कान या बने, जिनमें २००० बौड यति बसे हैं। सभी सम्म तीय कानोसे पौव वगैरह बहनेकी बीमारी ! कसंवाव देखो। हीनयानमतावलम्बी हैं। नगरके पाच रक्तविटि कर्ण स्रोतोभव (सं० पु.) कर्ण स्रोतसो विष्णुकण- (ली-ती-ब-चि) नामक एक सङ्काराम खड़ा है। विवरात् भवति, कर्ण स्रोतस भू-अच् । १ मधु नाम इसका शालादेश सुविस्तृत पौर प्राकार पति उच्च असर। २. कैटभ नामक अमुर। कंटम देखो। है। पहले यहां कोयो बौद्ध न था। राजाके आदेश कर्णहीन (पु.) १ सपं, सांप। सांपके कान से एक श्रमण पाये। उनको ज्ञानगर्भ कयाम मुग्ध नहीं होते। (भारत, अनु० ६६ १०) (वि.) २ वधिर, हो राजाने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उसी समयसे बहरा, जिसे सुन न पड़े। यहां बौद्ध धर्मका पादर बढ़ गया। इसी सारामसे कार्य (स'. अव्यः) कणे कणे होला प्रहत्तं अनतिदूर अशोक राजाने एक स्तूप बनाया था। कथनम, व्यतिहारे इच् पूर्वस्य दीर्घय । कर्ण से कर्ण यह कर्ण सुवर्ण जनपद कहा था। इसके वर्तमान पर्यन्त, कानों कान, कानाफसोस । स्थान पर गड़बड़ पड़ता है। किसी-किसीके मतानुसार "वर्षाकपि हि रुपयः कथयन्ति च ततस्थाम्।" (रामायण हा२।२८) मुर्शिदाबादके ६ कोस उत्तर 'कुरुसौनका-गई' नामक | कर्णाख्य (स० पु.) खेतमिण्टी, सफेद झाड़ । प्राचीन नगर कणंसुवर्ण, हो सकता है । (J. As. कर्णाञ्जलि (सं• पु०) कणे: पनचिरिव, उपमिः । Soc. Bengal. Vol. XXIL. 251ff. J. R. As. (n. कर्ण यष्क लौ, कानका छेद। अनलिके द्रव्यग्रहणको s.) Vol. VI. 248. Ind Ant. Vol. VII. 197.) भांति यह शब्दग्रहणको योग्यता रखता है। इससे फिर कोयो भागलपुरके निकटस्थ कणं गड़को पनलिके साथ उपमा दी गयी है। कर्ण सुवर्ण समझता है। (Bea's Record, Vol. | कर्णट (म० पु०) दाक्षिणात्य का एक प्राचीन जनपद। II. p. 20) वस्तुत: कर्णसुवर्ण का प्रक्षत स्थान भाज सिङ्गामतन्त्रमें लिखा- भी ठीक नहीं ठहरा। किन्तु चीन-परिव्राजकाकी "रामनार्थ समारभ्य चौरजान्त फिचरिi वर्णना देखते यह ननपद ताम्रलिप्तसे ७०० लि (प्रायः पाठदशो देवगि सामान्यभागदायकः।" ५० कोससे अधिक ) उत्तर-पश्चिम अवस्थित है। रामनायसे लेकर श्रीरङ्गको सीमा तक साम्राज्य- और मयूरभञ्ज पूर्व कर्णसुवर्ण राज्यका मोगदायक कर्णाटदेश है। गमनाथका वर्तमान नाम रामनाद है । वह भारत- कार्यसू (सं० स्त्रो०) कर्ण -सू-क्षिप् । कर्णको जननी कुन्ती। के दक्षिण समुद्र के निकट अवस्थित है। श्रीरङ्ग त्रिशिरा- कर्णसूची (स. स्त्री०) कर्णवेधनार्थं सूची, मध्यपद पक्षोके निकट कावरी और कोलरुण नदीके मध्य मा०कर्ष वेध करनेको सूची, कान छेदनेको सन्नाई।। पड़ता है। ऐसा होते शलिसक्षमतन्त्रके मतानुसार वर्तमान राढ़ अंश था।