कलावत-कलाप २. । जानुसे नाभितक 'नो प्रतिष्ठायै नमः', भाभिसे कण्ड नके निकट प्रतिमा कर कुमारको पाराधना उठायो देव तक 'नो विद्यायै नमः, कण्ठसे लबाट तक थो। कुमार मयूर पर चढ़ उनके समक्ष पावित 'पा शाम्य नमः' और लखाटसे अमरन्ध, तक 'पों हुये। शवैवर्माने मयरके कलापदेश पर सिदो वर्ष थान्ततीतायै नमः' मन्त्र द्वारा न्यास. कर पुनर्वार समानायः' सूत्र लिखा देखा था। यह देखते ही उक्त सकल मन्त्र द्वारा प्रारम्ब से यथाक्रम पदतत उनके मन में व्याकरणका पूर्ण ज्ञान पा गया। तक लौट पाते हैं। शर्ववर्माने उक्त सूत्रको प्रथम लगास्वतन्त्र व्याकरण कलावत (हि.) कलावान् देखी। बनाया है। मयरके कलापमें प्रथम सूत्र लिखा रहनेसे कसाप (स.पु.) कानां मावां पाप्नोति, कला इस व्याकरणका नाम कलाप पड़ा। पाप-अण, कला पाप्यते पनेन, कला-अप-घञ्-वा। कलाप-टोकाकारोंके मतानुसार सर्ववर्माने ईषत् लिय। पा २०११ । १ समूह, ढेर। २ मयुरपुच्छ, मोरको तन्त्र अर्थात् अल्पसूत्र में यह व्याकरण प्रपयन किया पूछ। ३ मेखला, चन्द्रहार । ४ अनार, ने.पर। था। इसीसे इसका नाम कातन्त्र हुवा * "कण्ठस्य सस्थाः सनबन्धुरस्य मुलाकलापस्य च निक्षलवा" (कुमार) भारतमै कलाप नाम प्रसिद्ध है। वैयाकरण ५ तूण, सरकाश । चन्द्र, चांद । ७ चतुर, होशियार पाणिनिसे नीचे इसीकी श्रेष्ठता मानते हैं। वास्तविक पादमी। ८ व्याकरण विशेष। कलाप-व्याकरणका केवल कलाप व्याकरणको पायोपान्त मन लगाकर अपर नाम कुमार और सातन्त्र है। कलापचन्द्र पदनेसे विद्यार्थी पण्डित हो सकता है। मामक संस्कृत. प्रत्यमें इस व्याकरणको उत्पत्तिके शर्ववर्माने कलापमें तीन अंशोंके सूत्र बनाये है- सम्बन्ध पर लिखा है,- सन्धि, चतुष्टय और प्रख्यात । उन्होंने वत्स्व प्रणयम राजा शालिवाहन किसी महिमोके साथ जलक्रीड़ा नहीं किये। करते थे। जबके मेचनसे रानीने रतिक रसमें सुध दुर्गासिंहने कसायको वृत्ति बनायी थी। उनकी बुध भूल राजाको कहा,-'मोदकं देहि देव' अर्थात् वृत्ति न लगनेसे कलापव्याकरण सम्पूर्ण पोर साधा- हे देव! मुझपर पानी मत डाली। मूर्खता वश रणके लिये सुबोधगम्य कैसे होता । दुर्गासिंहने अपनी राजाने उस स्वरघटित पद न समझ रानीको एक वृत्तिमें असाधारण पाण्डित्यका परिचय दिया है। मोदक (लडडू ) दिया था। इससे बुद्धिमती रानीने वास्तविक उसको देख चमकत होना पड़ता है। यह कर निन्दा उड़ायो-मेरे पति होते भी राजा मूर्ख दुर्गासि देखो। हैं। शालिवाइनने भार्याको सब बात शबंवर्मा गुरुसे कलाप व्याकरणको अनेक टीकायें भारतमें प्रच- कही थी। फिर शर्ववर्माने उनको विचाके लिये लित हैं। उनमें श्रीपति-रचित कलापत्तिटीका, कातन्त्र (कलाप-व्याकरण) बनाया। कातन्त्र वा विलोचनकत पत्रिका,कविराजकृत कसापत्ति टोका, कायको रचनाके सम्बन्ध में एक किम्बदन्ती है। हरिरामकृत व्याख्यासार, रघुनाथशिरोमणि रचित धर्ववर्मासे शालिवाहनको व्युत्पन्न बनाने के लिये व्याख्या, कातन्वचन्द्रिका और लघुति प्रसिद्ध है। प्रतित हो कुमारकी आराधना लगायो घो। भगवान कार्तिकेय पाराधनासे प्रोत हो अपने व्याकरण जानके • (1) "कावन्नोति नवि इटुम्बधारणे चुरादिवियन्तः। नन्नान्ते पाविर्भावको 'सिहो वर्णसमानाय:' पद्यपादरूप सूत्र व्युत्पाद्यन्ने भन्दा पनेनेति स्वरबगमिग्टहामल् (कलाप ) इति उन्हें प्रदान किया। कुमारसे व्याकरणका प्रथम सूत्र करणेऽल् प्रव्ययः । स चाने कार्यबाहाना न्युनपादन ऽपि वर्वते । तेन मिलने पर इसका दूसरा नाम 'कुमारव्याकरण तन्वमिह सूवमुचाते। ईषत् तन्त्र' कासन्नम्। कुशवस्य तन्त्रशद परे। का बोषदयं च इति ईषदर्थे' कादयः ।" (बिलोचनकृत कावन्नपत्रिका) एड़ गया। :: (५) "ईषतन्त्र कातन्त्रम् । छन्दोऽला गावकः।" (कविराज तथा दूसरी किम्बदन्ती यह है, शर्ववर्माने मास्तिवाद कावनचन्द्रिका) Vol. IV. 53
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२०८
दिखावट