पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२११

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१२ कलावती मालपूर्वक वाम ओर गुरु, परमगुरु एवं पराशर, भावमें जप, देवता बुद्धि पर वटादि वृक्ष किंवा पचाय दक्षिण गणेश और मध्यमें इष्टदेवताको वा प्रणाम वस्कलके कषाय, तीर्थजन्न अथवा सुवासित कवाय करते हैं। अस्त्रमन्त्र एवं गन्धपुष्प द्वारा दोनों हाथ द्वारा कुम्भ भरना चाहिये। चन्द्रको अमृत धादि संशोधन करने पौछ सन्हें अवं दिक तौन तालि और षोड्शकलाको पादक्षियसे नसमें चिता तथा मन्त्र दशदिक् तड़िसे बांधना चाहिये। फिर गुरु वकि, द्वारा पूजा कर और एक श बटादि बचके कषाय वीज तथा जलसे वडिके माकारको सौंच भूताहि प्रभृतिसे भर मष्ट गन्धद्रव्यमै विलोड़ित करते है। करते हैं। इसके पीछे मानकान्यास, प्राणायाम, उसमें भावाहनपूर्वक सकल कलावीको पूजा होतो पीठन्यास, पजादिन्यास और मन्वन्यास होता है। है। प्रथम अग्निको दश कला पूजी जाती हैं। प्रति- फिर गुरुको मुद्रा देखा ध्यान, मानसपूजा और अध्य सोम भावसे मूल मन्त्र का जप और मनही मन मन्त्र- स्थापन करना चाहिये। इसके पीछे अध्य पानसे वताका ध्यान करते हैं। फिर प्राणप्रतिष्ठापूर्वक किञ्चित् जल प्रोक्षणीपात्रमें डाल उसी जलसे प्रामा प्रत्येकको पूजना पड़ता है। इसके पीछे सूर्यको और पूजाके उपकरणको गुरु तीन बार सोचते हैं। तपिनी प्रादि हादश और चन्द्रकी पमृत प्रादि षोड़प .पीठमन्त्रसे शरीर में धर्मादिको पूजा की जाती है। कलाको पावाहन कर पृथक पृथक पूनते हैं। परि- फिर हत्पमके पूर्व भादि केशरोंमें पौठशक्ति पूज शेषको पचास कलाको पूना करना पड़ती है। सृष्टि मध्यमें पौठपूजा होती है। हृदयमें मूल देवताको भादि कवर्ग एव चवर्ग दय, जरादि टवर्ग तथा तवर्ग पूजा नैवेद्य व्यतीत केवल गन्धादि द्वारा करते हैं। दश, तीक्ष्यादि पवर्ग एवं यवर्ग दश, पीतादि वर्ग इसके पीछे मस्तक, हृदय, मूलाधार, पद प्रभृति सब पञ्च पौर नृवत्यादि भवर्ग षोड़श कलावाँको पूजना अङ्गमि मूलमन्वसे पांच पुष्याञ्जलियां दे यथाशक्ति चाहिये। समर्थ होनेसे प्रत्येकको पावाहन कर पाद्य. मन्त्र जप समापन करना चाहिये। पादिसे पूजा करना उचित है। फिर कलामय थरका यह समस्त कार्य प्रोक्षणीपात्रके जलसे सम्पादित काथ कुम्भमें डालते हैं। कुम्भका मुख प्रम्बस्य, पनस होता है। फिर प्रोक्षणोका जल बदल वहिपूना एवं भामपल्लव इन्द्रवलोस नपेट कल्पहन बुनिसे भारम्भ करते हैं। प्रथम शारदोहा सर्वतोमद्रमण्डलके पाच्छादन करना चाहिये। फिर कल्लापन बुद्धिसे भादिका अन्यतम मण्डल विधान कर घट रखना वक्त मुखपर फस, पासप पौर घसक रखना पड़ता चाहिये। मण्डलको पूजाके पीछे कर्णिका धान्य पूर्ण हैं। इसके पीछे निर्मल पवस्वयमे कुम्भको बेष्टन कर तण्डुल फैलाते हैं। फिर तण्डुलोंपर कुश विस्तार और मूल मनबसे कुम्भको मूर्ति कल्पन कर यथोशरूप पूर्वक प्रातपतण्डुल सयुक्त कुशासन विन्यास किया देवताके ध्यानपूर्वक पावाहनादि सहकारसे पूजा. जाता है। इसके पीछे मण्डलमें पोठोक देवता और करते हैं। देवताके अनमें भङ्गान्यास, धेनु एवं परमो. प्रादक्षियके वडिको दशकलाको विन्यास कर पूजना करणमुद्रा प्रदर्शन, प्राणप्रतिष्ठा और बोडमोपचार पड़ता है। फिर अस्त्र मन्त्र से प्रक्षालन, चन्दन, भगुरु पूजा समापन होनेपर १००८ वा १०८ बार मत जया एवं कपूरसे धूपदान और त्रिगुण सूत्रसे वेष्टन कर जाता है। फिर मग्न दश संस्कार समायन कर गुरुको स्वर्ण आदिसे रचित कुम्भको पूजते हैं। इसके पीछे शिथके नेवइय मन्त्र और वस्त्रसे बांधना चाहिये। कुम्भमें बिष्ठर, आतपतण्डन एवं नवरत्न डाल और प्रणव उच्चारणंपूर्वक कुम्भ तथा पीठका एकत्व पौठ पुष्य द्वारा उसको पचलि पर स्वयं मन्त्र पाठपूर्वक खापन करना पड़ता है। फिर कुम्भकों चारो दिक, देवताको प्रौतिके लिये गुरु कससमें 38 पुषाधाषि धेरैसूर्यको दादश कन्नाको स्थापनपूर्वक पूजते हैं।' चढ़ाते हैं। इसके पीछे नवका बन्धन सोश विषको सके पीछे मामाके भेदसे माटकामन्त्र प्रतिलोम कुशासनपर बैठाना चाहिये। खछत पूजाके. क्रमानु-

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