पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२२

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. कफ-कफोतु होना), मूत्रको पाविलता (मैलापन); उदरमें गोमूत्र, लाई, कृष्टतण्डलकतान, ईषदुष्ण ग्रह, कांस्य, भारबोध, अरुचि और निद्रालुता-साम कफका लौह, मुक्ता, वापूररसयुक्त तितकर एवं कषाय द्रश्य लक्षण है। पौर अधोगमनके आचरण, पान वा पाहारादिसे. प्रथम ही प्रकृति प्रत्यय निर्देशक व्युत्पत्ति हारा कफ नष्ट होता है प्रतिपन्न किया-कफ सर्वशरीरमें चलता-फिरता है। अपथ्य-सनेहप्रयोग, तैलाभ्यङ्ग, उपवेशन, दिवा- फिर यह भी कहा जा चुका-विक्षत अवस्थापर निद्रा, खान, नतन जल, नतन तण्डुल, मटर, मत्स्य, हृदय, कण्ड, पामाशय मस्तक एवं सन्धिस्थल में रहता मास, गुड़ादि मिष्टद्रव्य, छेने या मावे, दधि प्रभृति और विक्कत होनेपर कफ स्वस्थान छोड़ शरीरके सर्व टुग्धविकृत ट्रष्य, कमरख, पोय, कटहल, धान, खजूर, स्थानमें पहुंच नानाप्रकार रोग उत्पादन करता है। दुग्ध, अनुलेपन, नारिकेल, मिष्टान, मधुरट्रष्य, किन्तु यह सर्वत्र देहमें प्रसरणशील रहते भी वायुके अन्नद्रष्य, गुरुट्रव्य और हिम-सकलका माचरण, साहाय्य व्यतीत हृदयादि स्वस्थानसे अन्यत्र कैसे जा पाहार वा विहारादि कफके लिये अपथ्य ठहरता सकता है। यथा- अर्थात् कफ अनिष्ट उत्पन्न करता, उभरता तथा "पित्त पन, कफः पाः पढायो मलधातवः । बढता है। वायुना यव भौयन्ते तव वर्षन्ति मैघवन" (शावर) कफ (अ० पु०-Cuff ) १ पिप्पलाचल, पास्तीनको पित्त, कफ. विष्ठामूवादि मल और रस रक्तादि चुनटदार सप्ताफ़। यह एक दोहरी पट्टी रहती, धातु समस्त पङ्गवत् अचल हैं। वह स्वयं शरीरमें ना कुरते या कमोजको वाहमें हाथके पास लगती कदाच चलफिर नहीं सकते। फिर वायुकटक जिस है। इसमें कोई दो, कोई तीन और कोई चार वटन सानमें पहुंचाये जाते, वहीं जल धातु मेघ वर्षणको तक टंकाता है। चूड़ीदार कुरतेमें इसको प्रायः भांति अपनी क्रिया देखाते हैं। अर्थात् कफ विगड़ने, रखते हैं। कमौज में कफ जरूर रहता है। २ मुष्टि एभरने या बढ़ने पर वायुद्वारा शरीरके नाना स्थानोंमें प्रहार, धौल, थप्पड़, तमाचा,। २ यन्त्रविशेष, एक पहुंच नानाप्रकार व्याधि उत्पादन करता है। जैसे- अौजार, नाल। यह लोहेका होता है। इसको वक्षःस्थ फुसफुसमें खास तथा कासरोग, मस्तकमें मार-मार चमकसे भाग निकाली जाती है। शिरसपीड़ा और नासिकामें प्रा कफ प्रतिश्याय रोग | कफ (फा० पु०) फेन, भाग। लगा देता है। कफकर (त्रि.) कर्फ करोति, कफ-व-अच् । पथ्य-वमन, उपवास, नेत्रानन, मैथुन, शरीर १ कफवहिकारक, वलंगम बढ़ानेवाला। २ मा मार्जन, उष्ण जलादिके खेद, चिन्ता, जागरण, उत्पादन करनेवाला, जो जुकाम लाता हो। महर्षि परिश्रम, अत्यधिक पथपर्यटन, कृष्णाके वेगधारण, सुश्रुतके मतसे काकोली, क्षौरकाकोली, जोषक, ऋष- गण्ड पधारण, प्रतिसारण ( दन्त, जिह्वा एवं मुखमें भक, मुहपर्णी, माषपर्णी, मैदा, महामेदा, छिवाहा, घर्षण द्रव्य के प्रयोग ), शिरोविरेचक नस्य, इस्तो | कर्कटशृङ्गो, तुङ्गाक्षोरी, पद्मक, प्रपौण्डरीक, ऋषि, पखादि यानारोहण, धूमपान, शरीराच्छादन, युद्ध, वृद्धि, मृतिका, जीवन्ती पौर मधुक-काकोत्यादि- मनोदुःख उत्पादन, रुक्षद्रव्य, उष्णद्रव्य, पुरातन तथा गणोक्त सकल ट्रव्य कफकर हैं। पन्याम्य द्रव्य का सदमें देखो। पष्टिक धान्य, शिम्बिक, तृणधान्य, चणक, मुह, कुलस्य, माष, यव, चार, सर्षपत छ, उष्णनल, धन्वदेशन मांस, | कफकूचिका (सं० वि०) कर्फ कूर्चति विकंतं करोति, राजसर्षप, वेताग्र, पटोल, कारवेल, वार्ताको, उदुम्बर, कफ-कूच-खुल्-टाप भत इत्वम् च । चाचा, सार। कर्कोटक, मोचा, रसुन, निम्ब, प्राम मूलक, कटुकी, कफकेतु (स.पु०.) कफरोगाधिकारका प्रौषध, दवा। टङ्गण, मागधी, था एवं . पड़हर, मधु, ताम्बल, पुरातन मथ, विकटु, विफ़ला, ..बसगमकी