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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२४४

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कल्याण -कलााणधर्मी २४५ 'दित्यका राजल का शक८७-१८-ठहरता है। स्मार, शक्रहीनता, वयादोष, चक्षुरोग और राक्रमार्ग विक्रमके पिता श्यभावमा कल्यायनगरीके प्रतिष्ठाता का दोषसमूह छूट पाट हि होती है। ( सुक्षुत ) इसी थे। (Ind. Ant. VoL I. p. 209.) कल्याणप्रदेश घृतकी हिगुण जल पोर चतुगंण दुग्ध डाल कर विक्रमादित्य महारांजको पतिप्रिंय रहा। वह नाना पकानसे धीरकल्याण कहते हैं। (सारकौमुदी) फिर खानोंसे युद्ध जीत यहाँ पाकर ठहरते थे। दाहरोग पर महत्कल्याणक घृत चलता है। यथा घृत कल्याण उपाध्याय-बालतन्त्र नामक संस्कृत ग्रन्यके ४ शरावक, मतमूलिका रस १६ भरावक, दुग्धर प्रणेता। यह मशीधरके पुत्र और रामदासके पौत्र शरावक और जीरक, बसा, मनिष्ठा, अखगन्धा, थे। पहिच्छत्र नगर इनका जन्मस्थान रहा। इन्होंने हरिद्रा, काकोली, चोरकाकोली, यष्टिमा, मैदा, ६४४ शकंकी श्रावणपूर्णिमाको रविवारके दिन अपना महामेदा, ऋषि वृद्धि तथा देवदारुका कल्क पाठ. बालतन्त्र समाप्त किया था। पाठ तोले एकत पाककरनेसे महत्कल्याणकघृत त्यापक (स-क्लो०) कल्याण स्वार्थ कन् । १ कल्याण, प्रस्तुत होता है। (रसरवाकर).. मलाई। (पु.) २ पटक, दमनपापड़ा। (नि.) कल्याणकर (सं० वि०) माङ्गशिक, भलाई करनेवाला । '३ कल्याणयुक्त, भला, अच्छा। कल्याणकामोद (सं० पु०.) मित्ररोगविशेष, एक कल्याणकगुड़ (सं० पु.) ग्रहणीरोगका वैद्यको मिलावरी राग। ईमन भोर कामोद मिलनेसे यह औषधविशेष, दस्तोंकी बीमारीम दी जानेवाली एक बनता है। इसे प्रथम प्रहरमें गाते हैं। द्रव्य। भामलकोका रस २ सेर और इस गुड़ ६ सेर कल्याबकार, कच्चापकारक देखो । एकान पाक करे। पाक प्रायः समाप्त होने पर पिप्पली- कल्याणकारक (सं० त्रि.) कल्याणनंद, भलाई मूल, गौरक, चव्य, मरिच, पिप्यची, शुण्ठी, गज, करनेवाला। 'पिप्पली, हवुषा, अनमोदा, विड़ा, सैन्धव, हरीतका, कल्याणक्वत् (सं० वि०) कल्याण-क-क्लिप । १ कल्याण- पामसको, विमीतक, यमानी, पाठा, चित्रक एवं कारक, भलाई करनेवाला। २ शास्त्रविहित कार्य- धान्यकका पूर्ण पाठ-पाठ तोले, निहत्तर्ण १ मेर कारक, मला काम करनेवाला। और तेल १ सेर डाल अवलेह बना लेते हैं। यह अवलेह पाठ तोले इलायची और तेजपत्रका चूर्ण कल्याणकोट-सिन्धुपदेशवाले ठाठानगरके पाका. एक प्राचीन गिरिटुग। पानकल इसे , तुगलकाबाद मिला कर-खानेसे ग्रहणी, श्वास, कास, स्वरभेद, शोथ, कहते हैं। 'मन्दाग्नि, पुरुषलहानि और वन्ध्यादोष निवारित होता है। इसे विश्वत्के तेल में तलकर देना चाहिये। (चक्रदश) कल्याणगुड़, कल्याणक्षगुरु देखो। कल्याणकत (सं० क्ली०) वैद्यकोक्त वृत पौषध- कल्याणघृत, कल्याएकरात देखी। विशेष, दवाका एक धौ। विड़ा, त्रिफला, कल्याणचन्द्र (सं• पु.) एक ज्योतिशास्त्रकार। यह मुस्तक, मनिष्ठा, दाडिमत्वक, उत्पल, प्रियङ्ग, एला, ई०१२ ३ असाब्दमें विद्यमान थे। एवषालुक, रक्तचन्दन, देवदारु, वेणामूल, कुष्ठ, | कल्याणचार (सं० वि०) १ शुभमार्ग अवलम्बन करने हरिद्रा, थानपर्यो, चक्रकुल्या, पनन्तमूल, श्यामा, वाचा, जो मच्छो राह चलता हो। २ भाग्यशाली, रेणुका, वित्, दन्ती, वचा, तालीयपन पौर मालती- किरामती। मूल प्रत्येकका कल्क दो-दो तोले, धृत.३२ पद तथा| कल्याणधर्मा, कल्यायधौ देखो। जस १६ मरावक एकत्र पाक करनेसे यह घृत बनता | कल्याणधर्मी, (सं० वि०) कल्याणी मङ्गलमया धर्मोs. इसके सेवनसे विषमज्वर, खास, गुल्म, उन्माद, स्थास्ति, कल्याण-धर्म-इनि। मङ्गलकर धर्मविशिष्ट, विषरोग, अलक्ष्मीपह, रचोदोष, पग्निमान्य, पप. Vol. IV. नक, अच्छा। 62