२८२ काक रवरको तरह लचता है। इससे बोतन्तमें लगानेको। लगता है। पन्थि सरत रहते हैं। पैरका पाता गट्टा बनाते हैं। विधान, डाट, काग । मध्यविध लगता है। क्षुद्र प्रतान्तियां प्रायः समान यह शब्द अंगरेको कार्क' (Cork) का अपश है। पाती है। नख तीक्ष्ण और खुर वक्र होते हैं। यह काक (म' लो०) कु ईषत् के जलम्, को कादेशः । शाखा प्रथाखोपर बैठ और भूमिपर भी चच प्रकता है। १६षत् जन्न, थोड़ा पानी। काकस्य समूहः । २ काका १ देयौ कौवा-हिन्दुस्थानमें जो हौवे साधारणत: साल, कौशैका | ३ मुरतवन्ध विशेष। देख पड़ते, उन्हें 'कार्ग 'यौवा', 'कागजा' प्रति काकपद देखो। कहते हैं। ठीक नाम देशो कौवा है। इनका कपास, (पु.) कायते शब्दावते, के-कन् । मौका पापण्यतिमच्चियः मस्तक एवं सुखमण्डत चिकण कणवर्ण, बाड़, गल- कन् । उए ।। ३। ४ पश्चिविशेष, कौवा, एक चिड़िया। देश, पृष्ठ, वक्षःस्थल तथा उदर पाशवर्ण, पुच्छ एवं इसका संस्कृत पर्याय-करट, परिष्ट, वलिपुष्ट, सकृत् मुखमण्डन चिक्कण कणवर्ण, और गलदेशका पालक प्रज, ध्यङन, आत्मबोष, परभूत, वन्निभु, वायस, (पर) विरल रहता है। कृष्णवर्ण पानको पिन वातजव, बन, दीर्घायु, सूचक, कृष्ण, ग्रामीग, पिशुन, ओर हरित वर्ण को रिपया झनकती है। यह कटवादक, हिक, काग, काण, धलिजंध, निमिनकृत, १५से १७१८ इञ्च दीर्घ होते हैं। पुच्चका पालक कोशिकारि, चिरायु, सुखर, खर, महानोत, चिर ७ इञ्च, पक्ष ११६च्च और पद २ इन्च रहता है। श्रीगे, चलाचत, करटक, नागवीरक, गूढमथुन, पश्चात्यपण्डितक मतमें इनका नाम 'करवस् लण्टाक, थावक और रतन्वर है। स्पेण्डेन्स' (C.Splendens) अर्थात् साधारण काक पृथवीके उत्तरांश प्रायः सर्वत्र काक देख पड़ता है। अंगरेज़ इन्हें 'भारतीय साधारण जौवा कहते हैं। है। फिर भारतवम सकन्च स्थानोपर यह मिलता संघाखलसे यह 'ग्राम्य का' कहला सकते हैं। हिमा- है। हिन्दुस्थान में इसे कौवा, काग और कागता न्वयक पादमूलसे सिंहल पर्यन्त सर्वत्र या काक देख कहते हैं। काकको श्रेणीका विभाग नाना प्रकार है। पड़ते हैं। सिकिममें इसका प्रभाव है। नेपाल देशक गाकुनशास्त्रवेत्ताओं के मसमें काक कर विडी' धार काश्मीर में यह कम मिलते हैं। भारतवर्षक (Corvidae) विभागका अन्तर्गत 'करविनी | Corvina) भित्र भित्र स्थानों में जलवायुके गुणसे इनका वर्णव्यत्यय श्रेणोयुत 'करवस' (Corvus ) जातीय होता है। पड़ता हैं। सिन्धु, राजपूताना प्रमृप्ति शुष्क प्रदेशों में 'करवस' जातीय पक्षियों का नासारन्ध कपालके इनकै नातिकृष्ण रंगवाले पर प्राय: सादे रहते हैं। विनकुन्न नीचे नहीं पड़ता, अवं चक्षुके प्राय: मध्य फिर सिंहलद्दोष और दाक्षिणात्यके समुद्रोपती स्थलमें नासाके १२१४ लोम (चक्षुली पोर पापर इनके पान्नक पर) गाढ़ कृष्णवर्ण होते हैं। तीक्ष्ण लीमकी भांति प्राकार विशिष्ट कामत भथच काकके खजातीयोंमें परस्पर बन्धुता देख पड़ती है सूक्ष्म पाली)से आवत रहता है। यही इस जातिका नगर, ग्राम और बहुजनाकीर्ण स्थानमें यह अधिक विशेष चिन्ह है। फिर चक्षु दीर्घ, कठिन, गुरु पार संस्थासै दल बांध एकत्र रहते हैं। उसकन स्थानोंक सरल होता है। अवं चतुको उच्चता कुछ अधिक निकटवर्ती सिौ हत् वक्षपर प्रायः १.१२०० देयो लगती है। पक्षका क्रम सूक्ष्म और दोध रहता है। मिल कर रात बिताते हैं। केवल गर्भके समय कोई प्रथम पर छोटा होता है। किन्तु द्वितीय पर प्रधमकी घमिन्ता बनाता। पण्डे देनेसे केवन स्त्री पुरुष दो अपेक्षा बड़ा पड़ता है। फिर ढतीय और चतुर्थ र हो कोवे घोसलेमें घुसते हैं। दूसरे सबके सब हुन सबसे बड़ा निकलता हैं। पञ्चमसे क्रमशः पर छाटे पर हो रह रात काटते हैं। सन्ध्याकालको सूर्यास्तके पड़ते जाते हैं। पुक्क मध्यविध रहता है। पुच्छका पीछे हो १०।२० मौल दूरसे कौव दल बांध पाते और रात्रिको दो तीन दव पर्यन्त अपने-सोनेका खान अग्रभाग अधिकांश गोलाकार हाता है। पैर दृढ़ 1 ,
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