काक २८३ ठहराने के लिये वृक्षको डालोपर कांक मचाते हैं। चार पण्डे देते हैं। अण्डे कुछ हरे रहते और उनपर दूसरे दिन सवैरे प्रायः दो दण्ड रावि रहते-फिर अपना भूरे भूरे दाग पड़ते हैं। अण्डेका रंग बहुत सुन्दर यही धुनि लगा यह इधर उधर चक्कर लगाते और लगता हैं। कोकिन्च स्वयं घोंसला नहीं बनाता, अन्तको सूर्य निकलनेसे पाश्रय छोड़ चारो ओर उड़ कौवेके घोसने हमें अण्डे देने का ढंग लगाता है। जाते हैं। उड़ते ममय कौवे तीनसे तोस चालीस बोलना सीखते हो कोकिन्चके शावकको काकी ठोकर तक एकत्र एक टिक को चलते हैं। आहारकी चेष्ठाको मार घोसलेसे भगा देती है। ईखरकी महिमा अपार अधिक दूर जानवाले ही सवेरे सवेरे निकलते हैं। जब तक कोशिलका शावक उड़ नहीं सकता, निकट रहनेवाले वृक्षपर बैठ पनेक क्षण पालाप तब तक उसे बोलना भी कठिन पड़ता है। मुतरां लगाया वा पर बनाया करते हैं। काकी उसे ब्रीय सन्तानके निविशेष पालती है। यह मनुष्यके खाद्यावशेषसे ही प्रायः जीविका काश उसको भनेक दिनों पाहार दिया करते हैं। चलाते हैं। कावे जिस ग्राम वा नगाके निकट ठहरते, काक प्रतिगुन उड़ सकता है। बड़ी चील कभी उसमें घर घरके भोनन बनने और उच्छिष्ट फिकर्नसे कभी मुखस्थित आहार छीननेके लिये कौवको खदेड़ती अवगत रहते हैं। फिर समय देख यह वहां जा उस समय यह जिस तेजीसे भगता, उसे देख पहुंचते हैं। सभी कौवे यह वाते समझते हैं। किन्तु विस्मन होना पड़ता है। सबके सब एक ही स्थानपर धावा नहीं मारते। कुछ का प्रतिचतुर और बुद्धिमान है। इसकी इसी प्रकार लोकानयोम आते, कुछ नदी किनारे धूतलाके सम्बन्धमें ययेष्ट गल्प चलते हैं। यह बहुत कर्कट मेक एवं शुद्र मत्स्य वा कोटादि पकड़ने जाते, निर्भीक रहता है। मनुष्य के भोजन करते और निकट कुछ मैदान में पहुंच गवादिके शरीर जात कौट अथवा हो विडाल वंठा रहते भी कुछ लक्ष्य न कर काक शस्यको कणायें खाते, कुछ मृत जन्तुका शरीर खिड़की घुस पड़ता और पावसे अन्न उठा चलते ढूंढने को पैर बढ़ाने और कुछ कदली, बट, पान बनता है। यह लोगोंके सामने कूद कूद भूमि पर प्रतिके फलित वृक्षों पर दृष्टि लगाते हैं। वर्षाकानमें फिरता, विन्दुमाव भो भय नहीं करता। किन्तु. सन्ध्या या सवेरे पतिङ्गे उड़ने से यह फूले नहीं किसीक एक दृष्टि ताक लगाते काक उसी क्षण भाग समाते। दलके दन कौवे या उन्हें पकड़ पकड़ खति खड़ा होता है। यह पत्यन्त सन्दिग्धचित्त है। ग्रीष्मकाल में इन्हें बड़ा कष्ट मिलता है। प्रति सामान्य भयको सम्भावना रहते भी कौवा उस भोर दिन पाठ दश घडी धूप चढ़ते ही ग्रोपस धरा प्रहा. कम जाता है। लिकादि वृक्षादिकी छायामें बैठे कौवे हाफा करते है। का स्वजातीयका मृतदेह देखने या वन्दुकको रौद्र कम पड़नेसे यह फिर घूमने निकलते हैं। प्रत्याह आवाज़ सुननेसे महाकोलाहल उठा एकत्र होते हैं। चुगनेकी चन्नते समय कौवे राहमें दल बंधते पाते फिर यह उस स्थानको विरत कर डालते हैं। है। धूम फिर एक एक अट्टालिकाको छत या क्षुद तक कोई शेष फल नहीं देखाता, तब तक कौवोंका धादिपर बैठ जाते और अपने दलके पावासकी ओर दल कहां पाता जाना है। चलते समय साथही दौड़ लगाते हैं। इसका परिहास बहुत प्रिय है। दो-तीन काक वैशाख और भाद्रके मध्य कौवे पण्डे देते हैं। एक मिल चिन, शकुनि वा अन्यान्य पक्षीको पुच्छ पकड़- -एक वृक्ष पर अधिकसे अधिक तीन कौवे घोसना कर घोटत घसाटते धरा देते हैं। उसके विरक्त हो बनाते हैं। खुर पतवारसे ही इनका घोसना तैयार उड़ जाने. या च कार मारनेसे महा पानन्दमें या हो जाता है। किन्तु कलकत्तेवाले कौवोंके घासलों में कांकां करने लगते हैं। इमो प्रकार काक विडालके . टोनके टुकड़े और तारभी मिलते हैं। यह एक साथ मुख पाहार भी निकाल लेते हैं। - जब
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२८२
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