काककटक द्रश्य नष्ट वा - २६२ काकचरित्र है। मनुष्थ, इस्ती वा अश्वके मस्तक पर बैठ शब्द । दिक् पक्ष उठा कड़ा वाल पालनेसे मलय होता है। निकालनेसे मृत्य पाती है। नदीतीर वा वनमध्य कध होकर अपर काक पर चढ़ते शब्द करनेसे रोग घूमते घूमते कर्कश भावसे बोलनपर व्याघ्रभय होता हारा मृत्य आता है। है। पीड़ित वा दुश्चेष्ट काक देखनेसे अमङ्गल है। अपकृत होनेसे विनाश और लाभ है। मनुष्य वा अखके मस्तक और रथपर देख पड़नसे रोग विनाशका प्रश्न करनेपर काकके सुरव लगाते सैन्यवध होती है। सैन्यके संमुखसे आनेपर पराजय शीघ्र रोग छूट जाता और भान्त प्रदेश में किरकिराते हैं। मांस न रहते भी ग्टन एवं काको साथ शिविरमें | रोगके नाशमें विलम्ब देखाता है। पूछने पर शान्त प्रवेश करनेपर शव युद्ध में प्रति बड़ी लड़ाई और चले । दिक्को पकड़ धीरेसे वातने पर शुभ और विपरीत जाते सन्धि होती है। छिन्न ध्वज पर चढ़ समुद्यत पड़ने पर अशुभ है। कुम्भ पर शब्द करनेसे गर्भिणी शत्रुसैन्यकी ओर देखते रहने अथवा वटादि क्षीरिकृच पुत्रोत्पादन करती है। कण्टकयुक्त भाखा लेकर पर वैट शब्द करनेसे युद्धमें जय मिलता है। एतद उड़ने राजा पाता है। अनादि विष्ठा, और मांस भिन्न दिक् और प्रहरके अनुसार भी यात्राकाचको प्रभृतिये पूर्ण मुख काक अभीष्ट फल देता है। ऐसा काक शन्दका कथित शुभाशुभ देखते हैं। काक तन्त्रादिमें सिधि तथा वाणिज्यादिमें लाभ प्रद काकको चेष्टाविशेषसे शुभायभका निरूपण-अकारण बहुतसे और विवाहादिमें अपस्त है। प्रवादि वाहन पर काक एकत्र बोलनेसे ग्राम पन नाश होता है। अवस्थित होनेसे इष्ट सिद्धि है। छत्रादि पर बैठनेसे चक्राकति हो काकोंके शब्द करनेसे ग्राम धेरा जाता तदनुरूप द्रव्य मिलता है। प्राचीर पर चढ़नेसे वधू है। वाम और दक्षिण दिवा काकसमूह घूमनसे पाती है मनारम वृक्षपर अवस्थान करने से मनात ग्राममें भय लगता है। रात्रिकालको शब्द करनेसे विषय का लाभ है। सहकी ओर घूम कुलकुल ध्वनि लागीका विनाश होता है। चरण और चञ्च से लोगों निकालनसे पथिक पाता और सर्व कार्य बन जाता पर चोट करनेसे शव बढ़ते हैं। नहा कर धूलिमें | है। काकमैथुन वा खेतकाक देखने से पृथिवी पर लोटते वालनसे वृष्टि होती है। इस प्रकार अन्य महाभय लगता और उत्पात उठता है। ऐसे अद्भुत . जलजन्तुओं और स्थलजन्तुओंके विपरीत देखाने दर्शनसे उडेग, विदेष, भय, मवास, धनक्षय, व्याधिभय, अर्थात् जन्तचरोंके स्थल पर आने और स्थलचरके जलमें प्रहार, बुद्धिनाश, व्याकुलब और प्रमाद होता है। जानसे वर्षाकालको पानी बरसता और दूसरे समय इस दुःख राशिको शान्तिके लिये देखते ही सवस्त्र भय बढ़ता है । मध्याह्न काल किसीके राह पर नहाना, ब्राह्मणों को वस्त्र दिलाना, कुछ न खाना, बैठ कारकै शब्द करनेसे चौर उसका धन चौराता भूमि पर सो एक सप्ताह हविष्यात्रसे जीवन चलाना अथवा कोई अन्य प्रमाद आता है। अदृष्ट भावमें पौर स्त्रीके पास न जाना चाहिये। सावा दिन ढणपूर्ण मुख से बोलने पर अग्नि भय लगता अथवा अकाकघाती व्रत रहता है। फिर प्रभात होते नहा खस्थानमें रहते प्रवास में चलते भी तीन दिनके मध्य धी शान्तिविधान और यथाशक्ति गुणी ब्राह्मणोंकी धन विविध दुःख उठाना पड़ता है। भूमिपर बोलनेसे दान करते हैं। यह अदभत दर्शन जहां मिलता भूमि मिलती है। जलमें रहते शब्द करनेसे विन वहां अवर्षण, दुर्भिक्ष, उपसर्ग, चौर, अग्नि तथा शत्रु पड़ता है। प्रस्तर पर बोलनसे कार्य नष्ट होता है। भय और धर्म नाथ पा पहुंचता है। इसको शान्तिके लिये राजाको शान्तिक और पौष्टिक कर्म कर बार- (स्वस्थानमें रहते या प्रवासको चलते भी मनुष्यको णोंको अन्न, गो, भूमि तथा धन देना और एक इस शब्दका प्रभाव अनुभव करना पड़ता है) हारदेशमें रुधिर लिप्त शब्द करनेसे शिशु मरता है। पक्ष हिलाते वर्ष युहका नाम न लेना चाहिये। वर विशेषसे प्रभाराभवा निर्यय-कही से मङ्गल, कैका हिलात किर किरानमे रहका अमल है। जय
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२९१
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