पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३०

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1 ३० कौर लोग इनके घर पाकर पतिथि हुये। इन्होंने देखा, उसी दिन उन्होंने राज्यमय घोषणा को-कबीर 'बड़ा ही विभ्राट है! मैं दरिद, निर्धन हं। हमें हमको अति प्रिय हैं। अन्नका संस्थान नहीं। कैसे इतने लोगोंको मनस्तुष्टि कुछ दिन पोछे यह सीर्थयात्राको निकले पौर की जायेगी। इनका मन अस्थिर पड़ गया था। मथुरा दर्शन कर दिल्ली पहुंचे थे। उस समय यह ग्रहात्तरमें जा सोचने लगे। उधर भगवान्ने दिल्ली में मुसलमानराज सिकन्दर लोदीका राजत्व कवीरका रूप बना और अतिथियों को धनरनसे सजा रहा। दुष्टोंने जाकर सुलतानसे कह दिया-एक विदा कर दिया। इन्होंने घर पाकर यह अपूर्व दाम्भिक जोलाहा पाकर अनिकों की वच्चना करता घटना सुनी। फिर कोर क्या स्थिर रह सकते थे ! है। ऐसे व्यक्तिको राजदण्ड मिलना उचित है। प्राण छोड़ छोड़ यह केवल इष्टदेवको पुकारने लगे। सिकन्दरने कबीरको पकड़नेके लिये प्रादेश किसी दिन इन्होंने राजसभामें पहुंच एक लगाया था। यथासमय राजपुरुषोंने पा इन्हें पकड़ अजलि जल भर पूर्वमुख फेंका था। राजा इन्हें लिया। फिर इन्होंने उनके मुख प्राणदण्ड मिलनेको पागल समझ हंस पड़े। उस समय इन्होंने निर्भय वात सुनो। सिकन्दरके समीप पहुंचने पर पारि- राजाको सम्बोधन कर कहा था,-राजन् ! हंसनेका पदोंने इनसे नमस्कार करनेको कहा था। किन्तु कोई कारण नहीं। जगन्नाथपुरीमें किसी पूजक उन्होंने उनकी वातपर कर्णपात न किया और हंसते प्राधापके पैरपर उष्ण प्रोदन गिर पड़ा है। मैंने इंसते सुना दिया-किसको प्रणाम किया जाये, इस उसीके पैरपर शीतल जल डासा । संसारमें कौन वध्य नहीं। कवीरको वातसे राजाको बड़ा कौतूहल लगा था। फिर सुलतानने पति कुछ हो और इन्हें मृतला. उन्होंने जगनाथपुरोको दूत भेजा। घरने लौट वह कर यमुनाके अगाध सम्निल में डालने का प्रादेश कबीरकी बात सप्रमाण की थी। फिर राजाने निकाला था। राजपुरुषोंने तत्क्षणात् . कवोरको कवीरको एक सिपपुरुष टहरा लिया। साचात् यमुनाके नलमें निक्षेप किया। कालिन्दौके लण करनेको वह स्वयं इनके घर जा पहुंचे। कौर नीरमें इनका देह अदृश्य हो गया। किन्तु परक्षण रानाको अपने हुट्र कुटीरमें देख प्रसिशय पाल्हादित हो सकलने यमुनाके परपार इन्हें सहाख मुख वूमते और हाथ जोड़ कहने लगे,-'महाराज ! आपके देखा। दुष्ट लोगोंने सुन्ततानसे जाकर कह दिया- आगमनसे यह दास कतार्थ हुवा। किारको कुछ 'कबीर ऐन्द्रमालिक हैं।' सामान्य इन्द्रजाल-विद्याके करनेके लिये प्रादेश दीनिये। राजाने इन्ह प्रभावसे नियय उन्हें रक्षा मिसी है। इसवार अनिके आलिङ्गन कर कहा, हे वैष्णव ! आप हमारा दोष मध्य निक्षेप करायिये। दिल्लीखरने दुधेको बातोंमें यहण न कीजिये। हमने समझे श्रापका उपहास पड़ राजपुरुष बोला कर इन्हें महानसमें जला किया है। बतलायिये, क्या करनेसे प्रापं सुखी होंगे। डालनेको कहा था। किन्तु कसा आश्चर्य ! व्वलन्त 'धनरव जो चाहिये, हम भी देनेको प्रस्तुत हैं। अनलमें इनका एक केश नष्ट न हुवा। इन्होंने सहास्यमुख उत्तर दिया था,-रानन्। कबोरको इस अमानुष घटनासे भी दिलीखरको 'धनरबका क्या प्रयोजन है। जीवन और मरण चैतन्य आया न था। उन्होंने क्रोधसे उन्मत्त भोर 'उभय समान होते हैं। मैं मूर्ख इं! इस तुच्छ दुर्जनों की बातके वशीभूत हो हाथोके पैर नीचे इन्हें जीविकानिहके लिये धम नहीं चाहता। जो दोन दबा मार डालनेको आदेश दिया। किन्तु भगवान् जिसपर सदय रहते, इनार झायो भी उसका क्या दरिद्र, शुधातुर और पर्यके लिये लालायित है, अपनी कर सकते हैं। भाज-मसवासा 'हाथी मो इनका इच्छाके अनुसार उसे धन दीजिये। भापको महापुख सिंगरूप देख भय भाग गया। होगा।' राजा चित्त मिन प्रासादको सौटे थे।