कबीर B? 1 सिकन्दर कबीरको भूयसी प्रशंसा करने लगे।! कहा था-महामन् ! मैं नृत्यगीतादि नानाप्रकार इसबार सुलतानका मन भी भुक पड़ा था। उन्होंने - उपभोग द्वारा प्रापको सन्तुष्ट करना चाहती है। 'इन्हें बोला सादर सम्भाषण, कहा-साधु! हमारा रूपसौन्दर्यशालिनी पौर नृत्यगीतादि-निपुणा ना. दोष क्षमा कौजिये। आप महाजन हैं। पान पापको कोको देख यह सहास्य बोल उठे,-मैं सुखभोग और महिमा हम समझ सके हैं। नृत्यगीत नहीं समझता । फिर मैं स्त्री और पुरुष दोमें यह दिल्लीखरसे विदाय हो काशीधाम पहुंचे और एक भी नहीं। मुझसे आपको मनकामना कैसे संसारको पनित्यता देख पामज्ञानके लामको यनवान् पूर्ण होगी। नर्तकीने प्रति काकुतिमिनति भावमें हुये। काशीमें भी चारो ओर इनके विपक्ष घूमते थे। इनसे प्रार्थना की मैं बड़ी भाशाले पायो । मुझे एक दिन कोई दुष्ट कबीरके नामसे काशीवासी क्या हताश हो चौटना पड़ेगा। समस्त साधुवोंको निमन्त्रण दे पाया। । घटनाक्रमसे इन्होंने धौर भावसे उत्तर दिया-देखो। मेरे उसी दिन यह स्थानान्तर गये थे, कुटोरमें केवल कुछ गृहमें स्वयं भक्तवत्सल हरि विराजते हैं। वह शिष्य रहे। निमन्त्रण मिलनेसे काशीके सहन सहन पति रागी और महाभोगो हैं। उनके सामने नाच- साधु इनके वासस्थान पर उपनौत हुये। सहस्राधिक गा पाप अपनी भोगपिपासा मिटा सकती है। अतिथियोंको क्षुधात देख शिष्योंका प्राण सूख गया। नर्तको महा पानन्दित हुयो-मेरा ऐसा सौभाग्य, सकल ही सोचते थे-इतने लोगों को खिसा पिला कि मैं स्वयं भगवान्को नृत्यगीत द्वारा रिझावगी। कैसे विदा करेंगे। परक्षण ही भक्तवत्सल भगवान् उसी दिनसे वह वैश्या कवीरके हमें रह प्रत्यह कबीररूपसे भक्ष्य भोच्च ला सर्वसमक्ष देख पड़े और नाचने गाने लगी। इसी प्रकार कुछ दिन बीते थे। खास्तसे साधुवोंको भोजन करा चल दिये। प्रकाश मनही मन वेश्या कबीरको चाहती थी। एक दिन कर नही सकते-साधु कितने परिडत हुये थे। यह गभौर रजनीको सब लोग सो गये। किन्तु वैश्याको -ग्रहको लौट महासमारोह देखकर अत्यन्त विस्मयमें पांख न झपकी। कबीरके सम्भोगको लाखसासे उसका पाये । किसी शिष्यको पुकार इन्होंने पूछा था-वत्स ! चित्त अस्थिर हुया था। वह किसी प्रकार मामयम यह क्या व्यापार है, 'किस लिये इतने लोग पाये हैं। करम सकी और कबीरक सोनकी जगह मनके आवेगमें शिष्य पाचर्य हो कहने लगा-आप क्या कह रहे पा पहुंची। उसने गभौर अमारजनीको वहां कदीर- हैं पापंने जिन सहस्राधिक व्यक्तियों को खिलाया के बदले ज्योतिर्मय हरिकी मूर्ति देखी थी। पिलाया, उन्होंने आकर यह महोत्सव मचाया है। फिर उसकी कामपिपासा नजाने कहां पन्तहित कवीर समझ गये-यह सकल हरिको लोला हुयी! चक्षुसे प्रेमानुको धारा वही थी। उसके है। इन्होंने मनोभाव छिपा शिष्यसे कहा था लिये संसार प्रसार समझ पड़ा। वैश्या इसी वत्स! मैं क्षुधाने अतिशय कातर हो गया हूं, प्रमानिशाको एकाको सह छोड़ निविड़ अरखको मुझे साधुवोंका प्रसाद ला दो। मोर चली गयी। फिर जो कबीरके नियत अनिष्टको चेष्टा करते, इन्होंने प्रत्य ष उठ वैखाको घरमें न देखा। उसके वह दुर्जन मी महत्वके गुपसे वशीभूत होने लगे। प्रसार वस्त्रादि सकस-पड़े थे। कबीरने भावना लय व इनके निकट निज निज दोष स्वीकार कर लगायो-इतने दिनमें सम्भवतः वेश्याने सदगति पायो कितनी ही क्षमा मांगते, तब साधु कबीर सकलको है। इन्होंने शिष्योंको बोलाकर कहा-मेरे चलने- पालिङ्गनकर राम नाम पुकारते थे। का समय आ पहुंचा है। वत्स ! तुम काशीवासि- काशीवासी मान इनके गुणके पक्षपाती बन गये। योको संवाद दो-मणिकर्णिकाघाट पर सब लोग किसी दिन एक रूपवती वेश्याने कबोरके निकट पा कबीरसे जाकर मिली। -
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३१
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