पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३१७

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कपड़े और रेशमसे बनाये जाते हैं, क्योंकि इनका उद्देश्यको सिहिके लिये पाज कल यूरूपमें नाना ३.१८ कागज को पुडिया बांधने के लिए पच्छा होता है। कल- कत्तेके पनायब घरमें ऐसा एक मौजूद है; जो लम्बाई सहजमें और कम खचमें मंड' बन नाता है इस मे ५० फुट और चौड़ाई में २५ फुट मापका है। भूटान वासी अपने यहाँके "डिया" नामके एक स्थानोंसे फटे पुराने वस्त्रादिको प्रामदनी होती है। तरहके वचको छालसे कागज बनाते हैं। ये लोग मादागास्कर द्वीप में "पावो" नामके कृषकी छानसे उक्त वृक्षकी छालको लम्बी लम्बी चीर कर, लकड़ीको एक प्रकारका कागज बनता है। यह कागज भी खाकके साथ उवाचते हैं, फिर पत्थरके ऊपर रख कर भूटानके "डिया" नामक वृक्षको छायक कागजको काठके मुहरसे कूट कूट कर "मंड" बनाते हैं। बाद में सरह बनाया जाता है। इसमें भातका मांड़ दिया जापानियोंकी तरह कागज बनाते हैं। इससे साटिन जाता है। इस लिए यह कागज स्वाही नहीं सोकता। और रेशम बुनी जा सकती है। चीनदेशमें यह रईके कागजका इतिहास (-यूरोपीय विद्वानोंके उसी रूपसे ही व्यवहत होता है। मतसे, वुकेरिया प्रदेश में खुष्टीय वौं शताब्दीके अन्तके ब्रह्मदेशमें एक भांतिकी लतासे कागल बनता समयमें अथवा १०वीं शताब्दीके प्रारम्भमें सबसे पहिले है। यह पोष्ट बोर्डको सरह मोटा और कड़ा होता “बाबिकिनी (Bombycinnee) नामक राईका है। इस कागज पर रंग चढ़ा कर, इस पर सिलेट कागन बना था। भारबोयगण कहते हैं कि, जूस्फ पेन्सिलकी भांतिकी एक तरहके फोके पीले रंगके भामरा नामको व्यक्तिने ही सबसे पहिले ऐसा कागज पत्यरकी पेन्सिलसे लिखते हैं। बनाया था। परन्तु इमारी समझाये इससे पहिले भी श्याम देशमें एक प्रकारके वक्कलसे २ तरहके तुबाट पा रुईका कागज भारतवर्षमें प्रचलित था। कागन बनते हैं,-१सफेद और रे काले रंगके। इसका प्रमाण माकिदनवीर सिकन्दरके सेनापति जिस वृक्षकी छालसे यह बनाये जाते हैं, उस वृक्षका नियाकं सके तुलाचापड़ान के हिसावके उल्लेख नाम है-"पिलककोई"। यह अच्छा कागज नहीं मिलता है। प्रारवियोंने कागज बनानेकी प्रणाली होता; और बनता भी अच्छा नहीं। पारसियोंसे सौखो; और इन्हीं लोगोंने सबसे पहिले पहिले ही कह चुके हैं कि भारतवर्ष में भी हाथसे आफिकाके अन्तर्गत सेण्डा नगरमें, फिर सेन देशमें कागज नहीं बनते। यहां पुराने वोरा, फटे कपड़े, 'कनेक्षिा बैलेन्सिया और टलैडो नगरमें रुईके पुराने कागज और शमान बचादिसे कागज बनने कागजका कारखाना खोला था यूरोपवासो १२वों है। पहिले इन सबको पानी में भिगो कर चनेको चूर शताव्दीमें पूर्व यूरोप और सिसिलि दीपमें रुईके कागज मिला कर कूटते हैं। फिर 'मंड को धो कर चूनाके बनाते थे। कागज बनाने के योग्य, वस्तुओं के प्रभावसे पानीमें सड़ाते है, ४-५ दिन बाद यह पानी वदल हो रुईके कागजका पाविर्भाव हुआ था। इस कागजके दिया जाता है। इसी तरह दो-तीन बार पानी बदल बनने से क्रमश: पेपिरि कागज उठ गया था। १३वों कर अच्छी तरह सड़ा कर फिर उसे सांचे में ढाल कर भताब्दीसे मईका कागज खुब ही व्यक्त होने लगा। सुखा लेते हैं। कागज सूख जाने पर भातक मांड यह पहिले खु. पू. १ली शताब्दीसे खुष्टीय मी शताब्दीमें चीन और भारत, क्रमशः पारस्थ, पारव, घोंट कर सुखाया जाता है। फिर दो-चार दिन दवा रक्खा जाता है ; बादमें मेला-पस्यरसे घिस कर चिकना और, पलोया (मिनिसिया) घोर जम्मन तक फैन्स किया जाता है। समय ग्रीक लोग इसे "बम्बरकिनि' कहते थे; क्योंकि १८ वीं शताब्दीके प्रारम्भमें यूरूपमें कई और सन से प्रधानतः कागज बनाये जावे थे ; फटे पुराने कपड़े। ग्रीक भाषांमें कके वृक्षको “बखिक" कहते हैं। और रेशमसे नहीं। 'अब प्रधान रूपये फटे पुराने | प्राचीन साटिन लोग इसे “चार्टी बम्बिसिना*(Charta गया। तब इसका नाम था प्रोक पार्चमेण्ट ; उस .