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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३४९

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कात्यायन कई कात्यायनों का परिचय पाते हैं। उनमें विश्वामित्र-। भूमितसमै भयन तथा वनपर्यादि नियमको प वंशीय, गोभिचपुत्र और सोमदत्तक पुत्र वरतथि कर्तव्यता, इच्छानुसार अनुष्ठान न करते यादाह कात्यायन ही प्रधान हैं। १म विश्वामित्र-वशीय | एवं धन हानि प्रभृति कारपसे प्रायश्चित्त की प्रबल कात्यायन मुनिने 'कात्यायनश्रौतसूत्र', 'कातायन- कर्तव्यता, यथायधि नित्य कर्मसमूह का प्रतियातन, राधसूत्र', और 'प्रतिहारसूत्र' बनाया था। कात्यायन काम्य कर्मका मङ्गिरूपसे प्रतिपादन और कामना श्रौतसूत्रको कोई कोई 'कातीयचौतसूत्र' कहता है। रहते भी काम्यक का अनुष्ठान न करते जब वैदिक कात्यायन श्रौतसूत्रके श्म अध्यायको २म कण्डि अङ्गसमुदाय सम्पन्न करने की सामयं को; तमो कामें यह विषय लिखित हैं,-वेदवेदाङ्गाध्यायो करनेजा विधि। ३य कण्डि कामे --क, यजुः, साम सपनीक विज और रथकारका पग्निस्थापनादि और ष भेदसे चार प्रकार मन्च, ऋक् प्रभृतिका कार्य में अधिकार; भङ्गहीन, लीव, पतित पौर शूद्रका लक्षण, यजुके जिस परिमित पद उच्चारण करते अधिकार, निषाद एवं सूत्रधरका गावधुक नामक पदसमूहको पाकासा शून्य हो, कर्मकानमें उसी घरमें अधिकार, व्रतलनकारियोंका गर्दभयन परिमित वाक्य का प्रयोगविधि, जहां पठित पदसमूह नामक प्रायश्चित्तमें अधिकार, गावधुक चर तथा हारा यजुः आकाडा शून्य न हो, वहीं यथायोग्य पद व्रतसइनकारियोंके प्रायश्चित्तरूप गर्दभयक्षको लौकि अध्याहार कर अथवा पूर्व पठितपद संयुक्त कर काग्निमें कर्तव्यता, गर्दभयन कपालपर तदान आकाइशून्य करने का विधान, कर्मके प्रारम्भम मन्त्र- म कर भूमि ही पर तदानका विधि, अग्निमें प्रयोगविधि, यजुर्वेदीय मन्त्रसमूह ऐसे खा जिसमें अधिकारक होम न कर जहमें करनेका विधान, अन्य सुन न सके और ऋग्वेद एवं प्रैष मन्त्र उच्चाखर. भन्यान्य. पाधारका पग्निमें ही करनेका विधि, गर्दभके से प्रयोग करनेका नियम, वशिष्टका कुराजासि- शिप्रदेशसे प्रायिनप्रदान; यसमूह, विहार मात्र पर्थ, साग्निक बाजपकी होमहादि पोर विषय, गाईपत्य, आहवनीय और दक्षिणाम्निम वसुधारा होम प्रभृतिमें संख्याका कोई नियम नारइते कर्तव्य वैदिक कर्म, पावसख्य पर्थात-इसम्बन्धीय निस परिमित संख्यामें कार्यसिद्धि हो वही प्राण लौकिक पग्निमें स्मृतिविहित कर्तव्य और मांसपाकके करनेका विधि, इधमवहिवन्धनके लिये संगहन पौर निषेधको व्यवस्था । २य कणिका देवतागपके विषम संख्या तणमुष्टिका वह नियम, (नइनमे भेद, उद्देशसे टूव्यत्यागरूप याग, यागतया, ममावस्या और पोर्णमासी भादि अब्द का अर्थबोधक एक त्याग, १.त्तरदिकको बहिर्भागमें अप्रभाग स्थापनपूर्वक उसका प्राधान्य, इस प्रकरणपठित प्रन्याधानसे बरमाकी भांति हद रूपसे बन्धनकर बाहर मूबदेशमें ब्रामणों की दक्षिणा, पर्यन्त कर्मसमूहकी पत्ता, पन्य गोपनकर रखना चाहिये। इसको प्रागप्रसं. इसीप्रकार प्रयाज तथा पूर्वाधार प्रभृति होमविधि, नहन कहते हैं। २ पूर्वदिकको वनिर्मागमें अप्रभाग उसका पङ्गसमूह, होममें दण्डायमान हो वषट्कार स्थापनपूर्वक पहलेकी भांति बन्धनकर मूलदेशने प्रदाम, यजति अब्दका अर्थ, पविष्ट हो वाहाकार अन्यि छिपानेले उदगम सहन होता है।) १८या प्रदान, जुहोति शब्दका पथ, समुदाय कर्म में ब्राह्मणका २१.हायके पचाश काडखको सहते हैं। किन्तु पौरहित्यविधि, वियवैश्यगणक प्रवशिष्ट विभौज पलाशके प्रभावमें बैंचकार, वैचके पभावमें गपिकारी, नमें मिषे धके लिये पौरहित्यमें निषेध, फललाममें गणिकारी प्रभावमै वंश, वंशके प्रभाव यामुर अभिसापी होते काम्यकर्मको अवश्य कर्तव्यता, पौर याडुमुरके प्रभावमें खदिर काष्ठ ग्रहण करनेका अग्निहोवादि नित्यकर्मको अवसरतम्यता, न करनेपर विधि, तीन इधकाठ द्वारा परिधिपरिमाणको व्यवस्था, अम्निसन्दीपनमन्त्रको वृषिके अनुसार इथवाटको उसके दोषका विधान, दौचित व्यक्षिका अत्यवाक्य, यथा-