वपन - ३५२ कात्यायन सहशा होते. भी निषिद्ध वस्तुके प्रतिनिधित्वका निषेध, मात्र मन्वपाठ होता है। एक रात्रिके मध्य वारंवार त्याग तथा वपन प्रमृति एवं संस्कार कर्ममें यजमानके निद्रादि कालको अमङ्गल देखनेसे वारंवार मन्त्र प्रतिनिधित्वका अभाव, किन्तु पात्रग्रहण, इविदर्शन, पढ़ना पड़ेगा। ऐसे समय एकवार मन्त्र पढ़ने अग्निस्थापन, व्यहन और वेदवन्धनादि गुणकर्ममें काम नहीं चलता। अप्रधामकालीन अङ्ग एकवार यजमानके प्रतिनिधित्वका विधि, पत्नीके प्रभावमें भी मान होता है, उसका प्रतिधान बदलना नहीं पड़ता। इविदर्शन, अन्वारम्भ और उपालन * प्रमृति , प्राधानादि कार्य में केवल यजमान ही नहीं, समुदाय गुणकर्ममें प्रतिनिधिकल्पना, यजमानकर्मके साथ पुरुष कर्ता है। फिर भी देवताके उद्देशसे ट्रव्यत्याग सम्बन्धवशतः प्रतिनिधिरूपसे कल्पित व्यक्तिके भी प्रभृति पात्मकर्मममूह यजमानको ही करना और दीक्षादि यजमानधर्मका सम्पादनविधि, ब्राह्मणका पुरुषयोनि मन्त्रसमूह अपना चाहिये। ही यत्राधिकार, क्षत्रियवैश्यका अनधिकार, ब्राह्मण अभ्यनुनादि संखार यजमानका ही है। किसी होते भी एक कल्प ब्राह्मणका अधिकार, किन्तु किसी स्थल में यह संस्कार युरोहितका भी होता है। विभिन्न कल्पका नहीं, चविय तथा वैश्यका गृहपतित्व इन सकल कार्यों को छोड़ पन्य कार्य विशेषः अधिकार राते भी यन्नमें पधिकार नहीं। सहन विधान रहते यजमानको ही करना पड़ेगा। जैसे- वसर साध्य यन्त्र मनुष्यसाध्य है। क्योंकि यहां यजमान वसुधारा होम करेगा और पान सकस संवत्ससर शब्दका सहन दिन मात्र लक्षणविधि है। प्रहण करेगा। तद्भिन्न कार्य पुरोहित प्रभृतिका है। .2म कण्डिकामें जहां एकही फलको कामनासे एक जैसे अवयुका आध्वयंव कार्य, होताका होबकार्य वाक्य द्वारा वहुसंख्यक प्रधान कार्यका विधान है, और उद्गाताका उद्गात्र कार्य। समूदाय कार्य वहाँ समुदाय कार्यका एकत्र प्रयोग होता है। देश, यज्ञोपवीतधारीको करना पड़ता है। फिर समस्त काल, फल पौर कर्मादि समान रहते प्रधान कार्य- कार्य पूर्वदिक् वा उत्तर दिकस्य कर सम्पादन करनेका समूहका पाश उपयोगी प्राधार, प्रयाज और पान्य नियम है। परिस्तरव एवं पर्युक्षयादि कार्य -भाग पृथक पृथक न कर एकत्र करनेका नियम है। प्रदक्षिण क्रमसे पौर पिटकार्य अपसव्य क्रमसे पर्थात् किन्तु देश, काल वा तन्त्रभेद पड़नसे एकत्र कर्तव्य दक्षिणसे क्रमानुसार धाम पोरको करनेका नियम नहीं। एक द्रव्य में अनेक कर्मका विधान गनेसे है। देवकार्यमें जहां पुनरावृत्ति करते, पैन कार्यमें- प्रत्येक क्रिया में मन्त्रपाठ न कर केवल एक बार ही वहां एकही वार निबटते हैं। पैत्रकर्म में दक्षिषदिक्. करनेका विधि है। किन्तु इविग्रहण, कुशच्छद प्रशस्त है। देवकर्ममें जो पूर्वदिक्की स्थापन करना कुशस्तरण और आज्यग्रहण कार्यम प्रत्येक वार मन्त्र पड़ता, क्षेत्रकर्मम वह समुदाय दक्षिणदिक्को स्थापन पढ़ना पड़ता है। श्राज्यग्रहण कार्य में तीन वार मन्त्र करना उचित रहता है। प्रधान द्रव्य विनष्ट होनेसे पढ़ते और अवशिष्ट बार मौनी रहते हैं। दीक्षित निकटस्थ पङ्गसमूहके साथ उसकी पुनरावृत्ति करना व्यक्षिके अनेक दाखप्रदर्शनमें एकबारमात्र मन्त्रपाठ चाहिये। म काण्डका विकल्प विधिस्थस पर विधि है। एक नदीके अनेक प्रवाह उत्तीर्ण होनेसे एक एकही द्रव्यहारा कार्य सम्पादन करना उचित है। बार मन्त्र पढ़ते हैं। भनेक वरिधाराका संयोग अदृष्ट बहु विषय विहित रहते समूदायको प्रय होते भी वर्षणकालमें एक ही बार मन्त्र पढ़ा जाता करना चाहिये। यज्ञकाखम मन्त्रसमूह एक अति है। एक ही समय पनेक भमङ्गल दर्शन एकवार स्वरसे प्रयोग करते हैं, संहिताखर वा ब्रामणस्वरसे मात्र सुर्योपस्थापन करते हैं। विश्रामपूर्वक पुनः प्रयोग कर्तव्य नहीं। किन्तु मुनस्य, साम, क्य, पुनः गमन करते समय पमेध्य दर्शन करनेसे एकवार नुस्क और यजमान मन्त्र एक अतिसे प्रयोग न कर संहितासे मिलते स्वरमें ही प्रयोग करना चाहिये। + गोमयादि शारा शेपन ।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५१
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