पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५२

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कात्यायन ३५३ । । माधानमें विहित दक्षिणादका विकल्प कर्तव्य, परिमित ग्रहण है। द्वितीय वार. हविःके पूर्वभागसे किन्तु समुच्चय नहीं। पनेक साधनकार्यमें अवध्यादि ऐसे ही नियममें ग्रहण करना पड़ता है। नमदग्नि कार्यका समुश्चय करना पड़ता है। सर्वत्र गाईपत्य तथा प्रभृति पर्व समूहमें तीन बार हवि: ग्रहण कर्तव्य है। आहवनीय कार्यमें प्रदक्षिण कर अपसव्य एवं अपसव्य उसमें प्रथम बार मध्यदेशसे, द्वितीय वार पूर्व भागसे कर प्रदक्षिण करते हैं। विहारको उत्तरदिक् और ढतीय वार पचाद्धागसे लेते हैं। जहां भाज्यभाग समुदाय कार्य किया जाता है। सुतरां ब्रह्म और पत्नीसंयाज, उपशियाज और अग्निहोत्रादि होममें यजमानका पासन विहारको दक्षिणदिक् कर्तव्य है। चार बार ग्रहणका. विधि है, वहां जमदग्नि प्रभृतिका पासमयके मध्य प्रथमतः यजमान एक भासन पर पांच वार ग्रहण किया जाता है। दधि, दुग्धका भी वेदिके मध्य पदका अग्रभाग संस्थापन कर बैठे, फिर अवदान नुव द्वारा प्रष्ठपर्व परिमित. ग्रहण करना अधको बैठना चाहिये। व्यतिविशेषका आदेश न पड़ता है। पुरोडामादि. हविः अवदानसे प्रथम रहते ध्वयंको यजुर्विहित कर्म सम्पादन करना भाज्य एक वार ले पन्य हविः ग्रहण करना चाहिये। कर्तव्य है, पादेश रहनेसे अन्य किया जाता है। शेष वार फिर पान्य लिया जाता है। खिष्टिक्षत् इवियानस्थ व्यसमूह जैसे पर पर संग्टहीत होता, होममें हविग्रहणके प्रधान भवदानको पपेक्षा एक प्रदान कालमें वैसे ही वह सकल द्रव्य पूर्व पूर्व लेना बार घटा देते हैं। उपस्ताका कार्य एक बार करते चाहिये। प्रतापनादि अग्निसाध्य संस्कार गाईपत्य हैं। उपरि देशमें पभिधारण दो वार कर्तव्य है। अग्निमें सम्पादन करते हैं। समुदाय कार्यमें ही हविः भवदेय पौर अवदान हवि:का प्रत्यभिधारण करना प्रदान गाईपत्य वा पाहवनीयमें कर्तव्य है। संस्कार पड़ता है। एक कपाल पुरोडाश सर्व स्थानमें पाहुति शून्य धृतमात्रको पान्य शब्दका अर्थ समझना चाहिये। देना चाहिये। "अग्नये अनुव्रीहि" की भांति वाक्यसे धृत शब्दये गव्यधृत लिया जाता है। द्रव्यविशेष | चतुर्थों विभवन्त देवतापद द्वारा अनुवचन करना कथित न रहनेसे सर्वत्र हौ घृतहारा होम कर्तव्य है, पड़ता है। मात्रावणके पीछे जहाँ मैत्रावरुणका किन्तु विशेष व्यका विधान होनेसे उसी द्रव्य द्वारा अनुसन्धान करते, वहां भी चतुथीं विभक्तन्त देवतापद होम करते है। ..चावालसे * वधिःस्थ पुरीष ग्रहण रखते हैं। किन्तु भाथावणके पीछे नहां मैत्रावरुणका करना चाहिये। पृथक् प्रादेश न रहते पाहवनीय अनुसन्धान नहीं करना पड़ता, वहां हितीयान्त देवता- यन्नमें ही समुदाय याग कर्तव्य है.। किन्तु आदेशको पद प्रयोग करना चाहिये । प्रेषसम्बन्धी अनुवचनस्थलमें विभिन्नता पाते भादेशानुसार याग करना पड़ता है। ट्रव्यके उत्तर षष्ठो होती है। किन्तु दो प्रेषों का सम्बन्ध ऐसा आदेश न होते एक वार मात्र सहीत ट्रव्य द्वारा . रहनसे षष्ठी नहीं लगती। जहां ऐसे प्रयोगका विधान होम करते हैं। पादेश रहनेसे आदेशानुसार रहता कि नाम ग्रहणपूर्वक इन्हें यमन करो, वहां किया जाता है। एम कण्डिकाम-सकल स्थल पर इन्हें पदके परिवर्तमें उन्हीं उन्हीं नामों का प्रयोग बीहि वा यव हविरूप कल्पना करते हैं। उभयक करना चाहिये। वषट्कारके साथ पाहुतिप्रदानस्थश्च निधानस्थल पर विधानानुसार कहीं पहले यव पीछे पर वेदोके दक्षिण भागमें उत्तर-पूर्व वा ईशान सुख ब्रोधि और कौं पहले व्रीहि पीछे यव देना चाहिये। अवस्थित हो वषट्कारके पीछे वा वषटकारके साथ किन्तु पापस्तम्बके मतसे सर्वदा केवल बीहि प्राध आहुति देते हैं। इन सकच स्थनोपर तमिथित इविः है। विविध ग्रहणका विधान रहनेसे प्रथम वार देना पड़ता है। उसका नियम है-प्रथम ताहुति, पुरोडाश चरके मध्यदेशसे वक्रभावमें एक पङ्गुष्ठ मध्यमें हविःथी आहुति और पीछे फिर इतकी पाहुति प्रदान करना चाहिये । अथवा मृत पौर हविः

  • उचरवेदी प्रवतकरणाय मिडी खोद कर बनाया हुवा गर्ने । एकत्र को प्रदान करना पड़ता है। १.म. कण्डिका

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