पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५४

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कात्यायन 1 पर्व में दर्थ पौर्य धर्मका कथन है। अपर तीन पर्व में द्रव्यदेवतादिका वर्णन है। यह कालिका बोरि पौर विविध वहिः प्रसारादि भोपदेशिक धर्मविधान है। यवका पाक्कासमें पाययण नामक कर्म कर्तव्य है। चातुर्मास्य वरुणमाघासादि पवैवयमें वैखदेव पर्व यरत् वसन्त प्रकृति काल, ट्रथदेवतादिशा-मंविधान धर्मका विधान है। किन्तु मावत्यादिमें ऐसा विधान और उसका प्रकार है। दर्श पौर्णमास यन्त्रके पीछे अग्र- नहीं। सौमिक सामको प्रपिचा वारुण प्राघासिक यणादिका यथापत्ति कार्यविधि, किन्तु इस यज्ञके खानमें शमै हुवा करता है। ऐसा सन्देह उपस्थित पूर्व विहित नहीं। दर्शपौर्णमासका उत्सर्ग होनेपर अम्नि- होनेसे कि कहां करेंगे, खोकिकाग्नि ही सेना होत्रम पाहुतिका विधि एवं पाग्रयण विधानप्रकार है। चारिये। दर्श और पौर्णमासमें पाम्नेयादि छह दीक्षितका विशेष विधि है। संवत्सर एवं उपसत्कादि प्रधान याग हैं। एक देवतायुक्त वैत कमसमुदायम यत्र में पामयणविशेष कहा है। संवत्सर पौर सुती पाम्नेय धर्मका विधान है। पनेक देवतायुक्त कर्ममें प्रभृतिमें ट्रष्य विशेषका विधान है। ध्यामाक पाप्रयण- पग्निषोमीय धर्मविधि है। द्रव्य सामान्य धर्मप्रति का विधानप्रकार है। उन कांडिका पग्नि, पाध्येय है। देवता गुपके उपाशत्व प्रतिको साम्य अवस्थामें ] कर्म, काल, देवता और मंत्रका विधान प्रकारादि 'धर्मप्रवत्ति है। द्रव्य देवता उभयका साम्य विरोध रहते कथित है। म,टम पौर १०म काण्डिकामें पाधानके द्रव्यको समानतामें धर्म होता है, किन्तु देवताके पज कमसमूहका विधान एवं मंत्रादिकथन है । ११श सामान्य नहीं। गोमें दुग्धका धर्म मेता है, किन्तु कण्डिकामें पुनार पाधानसे धननाथ प्रमृति निमित्त- दधिका नहीं। इसी सिये चातुर्माख प्रमृतिमें परि कथन है। उसका विधानप्रकार है। १२य कण्डिकामें वासित शाखा द्वारा पवित्र बन्धनके पीछे वत्स दूरीभूत कैवचमान अग्निहोत्रावासप्रका उपखानप्रकार है। पौर दोहन चतुष्टय प्राप्त होता है। पशमें दधिका १३, १४२ पोर १५ कण्डिका पग्निहोत्रके कास, 'धर्म नौं, दुग्धका धर्म होता है। द्रव्य समूहमें स्थाना द्रव्य, देवता, विधान तथा मंवादि कामनाभेदानुसार •पत्तिका धर्म रहता है। प्राकृत स्थानयुक्त दृष्यका.जो अवस्था भेदयुत पग्निमें होमको कर्तवाता है। स्थानीय धर्मके साथ विरोध पड़ता, स्थानप्राप्त द्रव्यमें कामनाभेदके होममें द्रव्यभेदका विधि है। ऐसे ऐसे वह विरोध मग नहीं सकता। जिस विश्वतिसे प्रावत द्रव्यसमूहद्वारा प्रत्यह संवत्सर होम करने पर तदनुसार द्रव्य देवतास्थानम पन्य द्रव्य देवतादिविहित होता, कामनासिव होनेकी बात है। पग्निहोत्र होम एवं उस स्थान में प्रकृतमन्चका महनहीं पाता। विकृतिमें सर्वविध यजम गाईपत्य पागारके दक्षिण हारसे प्रवेश- वचनविशेषसे प्राकृत धर्म नहीं होता। अर्थशीय का विधि है। सर्वदा यजमानको स्वयं ही होम करना और प्रयोजनोपसे प्रावत धर्म नहीं पाते। विवतिमें उचित है, कार्यवशतः यजमान प्रथत होते यजमान- विरोध हेतु प्रात धमैसमूहको प्रवत्ति नहीं पड़ती। नियुक्त अध्वर्यु भी कर सकता है। किन्तु दर्थ पौर प्रवृत्तिसे जो पदार्थरूपमे विहित है, पदार्थको प्रतिसे पौर्णमासीम सर्वदा स्वयं होम करना चाहिये। प्रवासमें विक्षतिसे उसकी मप्रवत्ति होती है। जहां पदार्थ पौर भूतकादि प्रमोचमें विशेष नियम है। जात द्रव्य कहौं कर्मान्सरसाधनके लिये विहित हुवा -५म अध्याय १३.कण्डिका। उनके मध्य म है, उसमें दूसरेका प्रभाव राते मी पदार्थनास द्रव्यका पौर श्य कणिकामें चातुर्मास्य यनान्तर्गत वैखदेव सद्भाव होता है। समुदाय द्रष्यका सबः समयविधि यागका पर्वकाल एवं उसके द्रव्य और देवताप्रयोगा- है। श्यं काण्डिकाम प्रजा, पह, अब और यथः दिका वर्णन है। श्य, ४थ पौर म कण्डिकामें वरुण- कामादिका कार्यदाचायण यंत्र, मंत्र एवं पौर्णमासके प्राधासका रूप और उसका पर्वकास, द्रव्य, देवता एवं देव तया. ट्रव्यभेद वर्णनपूर्वक उनका विधान है। • वैदिक, मनासौर, वरप्राधास पौर सावध यानचतुष्टयं- श्म कारिखका उपाए सन्दका प्रर्थकथन और उसमें साप चातुर्मासं या रस बागचतुष्टयको कमी कमी पर्व कहते है। .