पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५६

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कात्यायन ३५७ अधिकार, वाजपेय या करने पर राजस्यको भी इसमें अधिकार है। चार रानमें इस यत्रके अनावश्यकता और राजसूयके ट्रव्य, देवता एवं मंत्रका सम्पादनका विधि है। इस यन्त्रको पाखरूप विधानादि वर्णित है। मुरामस्तुतप्रणाली और इस यत्रका वा, देवता तथा . १५ अध्यायमें ८ कण्डिका हैं। उनसे १म मंत्रादि कथित है। कण्डिकामें पञ्चचितिक खबविशेषस्थित अग्नि २०श अध्यायमें ८ कण्डिका है। समस्त विधानका प्रकार है। चयमरूपात विशिष्टाग्निको कंडिकावोंमें यनका विधान है। इसमें पभिषिक क्षत्रिय सोमानता कही है। उसमें इच्छानुसार अधिकार राजाका ही एकमात्र पधिकार है। ब्राह्मण और है। फिर भी केवलमात महावत नामक स्तोत्रसाध्य | वैश्यका पनधिकार है। तीन रानमें इसका सम्पादन

सोमयागमें पचचितिक स्थलका नियम है।

पन्धन नियम है। इस यज्ञके फलसे समुदाय अभीष्टसिद्धिकी इच्छानुसार विकल्प है। श्य, ३य और ४ कथा और यन्त्रका काल, वा, देवता तथा. मंत्रादि करिखकामें उखा (यनादिका पानविशेष) निर्माण- कधित है। ..प्रकार है। ५म कण्डिकामें पग्निचयनप्रकार एवं २१थ अध्यायमें ८ कण्डिका. हैं। उनसे श्म उसमें देवता और मंत्रादिका विधान है। कणिकामें नरमेधयन्त्रका विधि है। सर्वजीवसे कण्डिकाम पश्च पग्निविशेषका चयनप्रकार है। म उत्कर्ष कामी पुरुषका पधिकार है। पांच रानमें कण्डिका तत्-सम्बन्धीय प्रायश्चित्त होमविधान इसका सम्पादन विधि है। इसमें एकविंशति-दीक्षा- • है। ८म काखिकामें पूर्वोत पग्निचयनका प्रकार- नियम है। ब्राह्मण और क्षत्रियको अधिकार है। भेद एवं उसके काल, द्रवा, देवता और मंत्रादिका वैश्यको पनधिकार है। इस · यत्रके ट्रया, देवता कथन है। और मंत्रादिका विधान विहित है। श्य - करिकामे १७५ पध्यायमें १२ करिखका हैं। समुदाय सर्वविषय अभिलाषो वालिके सर्वमेधयनका विधान है। कण्डिका प्रायश्चित्तान्त कर्मक परवर्ती कर्तवाका दस रानमें उसका सम्पादनविधि है। श्य और विधान और उसका भेद, वा, देवता तथा मंत्रादि ४ कण्डिकामें मनुष्य, अख, गो, मेष और छाग पक्ष कधित है। पशका वधविधि है। प्रोषित वा मृत पिताका संवत्सर- १८० अध्यायमें ६ कण्डिका हैं। उनमें शत प्रतीत होनेसे पिटमधयनका विधान और उसके रुद्रीय होम, उसके अङ्गकर्म, वा, देवता पौर, नक्षवादि काल, वा, देवता तथा मंत्रका भौ विधान मंत्रादिका विधान है। ६ष्ठ कण्डिकाके शेषभागमें वर्णित है। अग्निचयनकारी पुरुषका नियम कथित है। २२ अध्याय में ११ कण्डिका है। उसकी प्रथम १८५ अध्याय ७ कण्डिका हैं। उनमें सौत्रा कहिकामें यजुर्वेदीय आधानादि, पिवमेध पर्यन्त मणि यागका विधान है। इस यत्रमें धनाभिलाषी कर्मविधि और सामवेदीय एकाहसाध्य यागविधि ब्राह्मणका पधिकार है। सोमयनकारी साग्निक कथित है। इस सम्बन्धको कई परिभाषा भी लिखी ब्राह्मणों को सोमयजके पोछे इसको कर्तवाता है। हैं। यथा-विभिवसंस्थ कथित न रहनसे या सोमातिपूत अर्थात् मुख, नासिका, कर्ण, गुह्य-प्रभृति | अग्निष्टोमसंस्थ हुवा करता है। धेनुमावदक्षिणा- छिद्र द्वारा पीत सोम निकालनेवाले और सोमवामी | देय भूर्नामक एकाइ और ज्योतिर्नामक एकाइमें अर्थात् पौत सोम मुखमे वमन करनेवालेका इस यन्नमें कोई संस्थ कहा न जानेसे : उभय. अग्निष्टोमसंस्थ अधिकार है। भन्नु कटक खराज्यसे. वहिष्कृत होते हैं। गो और आयुः नामक एकाइ उक्थ्य- राजाका पुनार राज्य प्राप्तिके लिये इसमें अधिकार संस्थ है। अभिजित् पौर विश्वामित् पग्निष्टोमसंस्थ है। पथके प्रभाव में पशु पानेकी कामनासे वैश्यको हैं। ज्येष्ठपुबके विभागयोग्य वा एवं भूमि और Vol. IV. 90