३५८ कात्यायन दास वातीत पदार्थको सर्ववपदार्थ कहते हैं। है। इस समुदायको दचिणाका भेद विधानादि है। किसी किसीके मतानुसार धारण भ्रमणादिके लिये चतुर्थ उक्थ्यसंस्थाका विरामम्मित नाम है। भूमि पौर शुश्रूषाके लिये दास आवश्यक है। इन साधक नामक छह यन्त्रका विधान है। उसका उभय व्योंको छोड़ सुवर्णादि अन्य समुदाय द्रव्य प्रदर्शन उत्तरोत्तर किया है। यथा-प्रथम सायरनमें सर्वस्व है। पुरुषमेध यज्ञ गभंदासके दानका विधान स्वर्गकाम, पराकाम एवं भाव्य-विशिष्ट पुरुषोंका और भूमिके एकदेशपरित्यागर्ने धारणको सम्भावना अधिकार है। हितोय साधस्क्रने दीर्घव्याधिशान्ति है, इसलिये अपने मतमें भी उभय द्रव्य व्यतीत एवं प्रतिष्ठा और अवाभिलाषियोंका अधिकार है। अन्य समुदाय सर्वस्व होता है। किन्तु अवभृथ अनुको नामक टतोय साद्यस्व में कर्महीन पार कर्म- मानविहित वत्सछवि और दोधाका उपयोगी निवृत्तिमाथि यांका अधिकार है। विखजिपिल्य द्रवासमूह सर्व खके मध्य परिगणित नहीं। वस्तुतः नामक चतुर्थ साद्यस्कम दक्षिणाभेद, सर्वस्व प्रतिनिधि- सहन अपेक्षा अधिकसंख्यक ट्रवा ही सर्वस्त्र कहाता दक्षिणा विधान और सर्वस प्रतिनिधि द्रवासमूहका और यही दक्षिणा माना जाता है। विखजित् यन्नमें वर्णन है। यथा-धनु, वृष, सौर, धान्य, पचादि हादशरावि प्रति नियमको विभिन्नता है। अभि परिमाणोपयागी स्वर्ण तया रौप्य, दास, दासी, मिथुन मित् सम्पन्न होनेपर विश्वजितका अनुष्ठान किया उपकरणके साथ महानस, प्रवादि यानारोहण पौर जाता है पथवा पभिजित् पौर विश्वजितका एकदा गृहशय्या। प्रतएव सर्व ख पद हारा इस समस्तका अनुष्ठान कर्ता है। किन्तु एक ही समय उभय कार्य ही ग्रहण कर्तवा है। श्येन नामक पञ्चम साद्यस्व में करने पर देवयजनस्थानका विशेष नियम है, उसमें वैरनिर्यातनकामका अधिकार, उसकी दक्षिणा, पोड़श ऋत्विक्का काय वाहुल्यप्रयुक्त अन्यतम अनुष्ठान, मन्त्र और देवतादि कथन है। फिर ऋविक् द्वारा अन्यत्र सम्पादन करना पड़ता है। एकत्रिक नामक षष्ठ साधस्क्रका विधान है। दोचा किन्तु बहिर्वेदिक कर्मसमूह उभयका एक रूप है। अपेक्षा सद्यः क्रियमायताके लिये इनकी साधस्क्रसंचा केवल अन्तर्वेदिक कर्मम ही उभयका विभिन्नता व्रात्यतीम नामक चतुर्विध एकाझ्यागका पड़ती है। उभय कार्य एक ही समय करते भी विधान है। तीन पुरुष पर्यन्त पतित सावित्रीकको प्रमिजित्का एक एक अङ्ग सम्पादन कर विखजित्का नात्य कहते हैं। इस दोषको शान्तिके लिये इनका एक एक अन सम्पादन करते हैं। सर्वजित् नामक अनुष्ठान और नौकिक पग्निमें इनका होमविधि है। एका महाव्रत नामक सामस्तवसाध्य है। इस उनके मध्य प्रथम ब्रात्यस्तोममें नृत्यगीतकारी बालका यनमें संवारदोबा, सप्ताका मान और तीन या अधिकार है। हितोय एकत्यसंख में निन्दित काशिका अधिकार है। द्वतीयमें कनिष्ठका अधिकार है। वह उपसद विहित हैं। पर्थात् संवत्सर दोशाके पोछे सप्तम दिवस मान करना और उसके अनन्तरं इसमें गृहपति बना कार्य सम्पादन करना पड़ता है। सप्ताह पतीत होने पर यमानुष्ठान कर तोन या कर चतुर्थमें अल्पसन्ततिस्त्रविर ज्यष्ठका अधिकार है। उपसद करना चाहिये। यह यज्ञ भी अग्निष्टोमसंस्य अर्थात् ऐसे ज्येष्ठको रहपति बना यह कार्य सम्पादन उक्त समस्त विषय १म कण्डिकामें कथित है। २य कण्डिकाम सर्वजित् यज्ञको दक्षिणाका भेद विधानादि और व्रात्यस्तोम सम्पादनकारियोंक और उसका विधानादि है। इस यज्ञको उक्थ्य- प्रन एवं प्रतिष्ठादि पभिलाषी और स्त्रीय पवित्रता- संस्थता है। कथित अभिजित् प्रभृतिका नामान्सर है। यथा-अभिजित्का नाम ज्योतिः, विश्वजितका प्रार्थी वाक्ति के अग्निष्टोमसंस्थ पम्निष्टुत् नामक नाम विश्वज्योतिः पार सर्वजितका नाम सर्वज्योतिः, एकाइयागकी कवाता है। करना पड़ता है। इन सकस कार्यो का दोचा- वावहारका विधि है। परिशेषको अवस, वीर्य,
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५७
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