सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कामलकौरक-कामवती ४६९ इस औषधसे कामलकीरक (सं० वि०) कमलकोरकस्य इदम कमल. अधिक लाभ होता है। विभीतक काष्ठसे मण्डुर जला कोरक-प्रण। प्रस्वोत्तरपदपतंद्यादिकोपधादश् । पाहा११ पाठ बार गोमूवमें डालने और मधुके साथ उसका वर्ण कमलकोरक नामक कोटसम्बन्धीय, एक कोडेके ! चाटनेसे कुम्भकामना अच्छी हो जाती है। (भावप्रकाश) मुताल्लिक। गरुडपुराणके मतानुसार इस रोगके निवारणार्थ कामलता (सं० स्त्रो०) कामस्य लता इव, उपमित. मरिच और तिलपुथ्य एकत्र पीस पांखमें सगाते हैं। समा०। उपस्थ, शिश्न । २ लताविशेष, एक वेल । फिर दुग्धके साथ अपामार्ग पौर गोक्षुरमूल पौनसे भी कामला (सं० स्त्रो०) काफन्त टाप। रोगविशेष, कंवन कामलादि रोग पच्छ हो जाते हैं। बाई। ( A form of Jaundice ) पाण्डुरोग चि मुखरोग भी नहीं रहते। किसित रहने या पाण्डुरोममें पित्तकर वस्तु पाहारादि कामलाचौ ( सं०स्त्री० ) कामले अधियो यस्याः, काम- करनेसे विकृतपित्त रोगीका रक्त मांस बिगाड़ कर ला-काषच् डोष्। प्राकर्षणकारक देवीमूर्ति विशेष । कामला रोग उत्पादन करता है। फिर प्रथमसे भी : "पनामारामिण कामलाचौम' जपेत् ।। (सम्बसार) कामला रोग हुवा करता है। इस रोगमें चक्षु, चर्म, कामसायन (सं० पु. ) कमलस्य अपत्य पुमान्, नख और मुखदेश हरिद्रावणं देख पड़ता है। मलमूत्र कमल-पन्-फक् । कमलके पुत्र, एक मुनि। इनका रक्त वा पीतवर्ण लगता है। सर्वशरीर स्वर्णभेकवर्ण नाम उपकोसल था। बन जाता है। इन्द्रिय शक्तिहीन रहते हैं। दाह, कामसायनि, कामलायन देखो। अजीर्ण, दुर्बलता, अवसन्नता और अरुचिका वेग बढ़ता कामनायाधिहन्त्री (सं० स्त्रो.) नागदन्ती, हाथोड। है। यह दो प्रकारको होती है-कोष्ठात्रया पौर ! कामलि (सं० पु.) वैशम्पाय नके एक थिय । शाखाश्रया। भामाशयादि प्राभ्य न्तरिक कोष्ठ समूहमें कामलिका (सं० स्त्रो०) कङ्ग धान्य, एक धान । उत्पन्न होनेसे कोष्ठकामला था कुम्भकामन्ता और इस्त- कामली (सं० वि०) कामतो रोगविशेषो ऽस्यास्ति, पादादि स्थानमें निकलेनेसे शाखाकामना कहलाती कामल-णिनि। १ कामलारोगपीड़ित, कंवल वाईको है। कुम्भ कामलामें वमन, अरुचि, उत्तथ, व्वर, बीमारीसे सकतीफ़ उठानेवाला । (पु.) कमलेन लान्ति, खास और कास उपजता और मलमंद होनेसे वैशम्पायमस्य अन्तवासिविशेषेण प्रोक्ष अघीयते । रोगी मरता है। फिर उभयविध कामलामें मन- कलापि वैशम्पायनान्ते वासिभ्यय। पा४।३।१४। वैशम्पायनके मूत्र क्वष्य एवं पीतवर्ण लगने अथवा मल, मूत्र तथा यमनमें रक्त पड़ने, शरीर शोथविशिष्ट एवं अवसब कामली (हि. स्त्रो०) क्षुद्र कम्बल, कमरो।

शिष्यका बनाया हुआ शास्त्र पढ़नेवाला।

रहने और दाह, अरुचि, पिपासा, पानाह, तन्द्रा, : कामलेखा (संस्त्रो.) कामानां कामयापाराणां लेखा मोह, बुद्धिनाय प्रति पड़नेसे भी रोगी बहुत दिन चि लक्षणं यत्र, बहुबी। वैश्या, रण्डी। तक नहीं जीता। कामलोक (सं० पु.) लोकविशेष, एक दुनिया। वौर- वैद्यशास्त्र के मतसे इस रोगमें त्रिफला, गुलचीन, : मतानुसार यह एकादश प्रकारका होता है, याम्य, दारहरिद्रा वा निम्बका क्वाथ मधुके साथ पीना तुषित, नरक, निर्माणरति, तिर्य कलोक, प्रेतलाक, चाहिये। द्रोणपुष्पक्षके पत्रका रस अांखमें लगाते पसुरलोक, त्रयस्त्रिंश, चातुर्महाराजिक, परनिर्मित- हैं। गुलचीनको पत्तो पास कर सनक साथ खानेसे भो ! वशवर्ती और मनुष्यलोक । लाभ होता है। आमलकी, लोहचणं, शुण्ठी, पिप्पली, कामबोल (सं० वि०) कामेन कन्दर्प पौड़या लालः मरिच तथा हरिद्राचूण, घृत, मधु और शर्करा मिला चञ्चलः, ३-सत्। कामको पौड़ासे पाकुल, शहवसके चाटना चाहिये । कुम्भकामलामें भी उक्त सकल प्रोषध - नारसे घबड़ाया हुवा। उपयोगी है। गोमूत्रके साथ शिवाजतु सेवन करनेसे 'कामवती (सं० स्त्री.) कामः कमनीयता प्रस्त्यस्याः, Vol. IV, - 118