पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४८४

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कायय ८५ पूजयामास धर्मात्मा घपमात्यानुलेपनः । सूर्यदेवने "तथास्तु' कह कर उनको वर दिया पौर वशिष्ठकथितयच पटटिसमन्वितः चित्रने सर्वज्ञता प्राप्त करनी। चित्रको अपने समान एदेश नपतमस्य थियस्व विमहामनः । क्षमतापन देख कर धर्मराज मन ही मन विचारने तस्य तुष्टः साश: कादिम महसा विसः॥१ लगे,-"यदि यह बुद्धिमान् मेरा लेखक बन पनवौइनस मद्र' ते वरं वरय मुन्नता जाता तो मेरे सब काम सिद्ध हो जाते। हे भामिनि ! सोऽवयौद्यदि मे सुटो मगांतोशोधितिः। र एक दिन धर्मरानने, लवणसमुट्रमें नहाते हुए चित्रको प्रौढत्व सयकाय नायता मा रुचिस्तथा । सत्तति प्रतिज्ञात स्यप वरवर्षिमि ॥ २९ अनुचरों द्वारा अपनो पुरीमें बुला लिया और अपनी वतः सर्वधता प्राप्तयियो मिवकचौडवः। इच्छाको पूर्ति को यह चित्र ही "संसार चरित्र के संभात्वा धर्मराणम्त बुझाच परया युतः ॥ २४ लेखक हैं, और बादमें चित्रगुप्त नामसे प्रसिद्ध चिन्तयामास मेधावी लतकोऽयं भवेत् यदि । तती मे समिहिस्त निश्चिय परा मवेत । १५ देवीपुराण ( ३८ अध्याय ) से मालूम होता पव' चिन्तयतस्तस्य धर्मराजस्य मामिमि । अनिता गरिब खाना लवशाम्भसिम २६ "दनुमा सुरान् सर्वानयोध्यन्त तदाहये । स तब प्रविशन्ने व नीतम्त यमहिमः। पथ मांसदा दृष्टा देवाम् दैवपतिर्महान् । सगरी महादवि यमादेशपरायः । २० उदयाद्रिसम रद गमराक्ष सुभूषितम् ॥ स धिवगुप्यनामाभूविचारिखदेखकः।" मिस्टरारुपरागाच घण्टाचामरमणितम् । (प्रमाउखक, १२१ प. चतुईन्न सुरुपाय' महावीर महावन्दम् । गनोदनुजन्यस्य कालसर्प स्वाभवत् । है देवि! पहिले इसी भूमण्डलमें, सर्वभूतोंके पय तब स्थितन्द्रं दृष्टा बादी महाबलः । प्रिय और उनके हितैषो 'मित्र' नामक एक कायस्थ कायरानं समारुड़ा दीप्ताकि दधावयत् । थे। ऋतुकालमें स्त्रीके साथ मम्भोग करके उन्होंने ख दृष्टा महिष धर्योदण्डपापिमहाबलः । चित्र नामका एक तेजस्वी पुत्र पैदा किया। मित्रके पाक्दविवगुप्मथ कालकैतुसमन्वितः। रूपवती एक कन्या भी हुई थी। पुत्र-पुत्रीके होते कृतान्ती निष्ठर ख ववदणी महादतः । ही मित्र परोक सिधारे, साधमें उनकी स्त्री भी एवन्तु निमिंतिम पुरुष च तदानुनः । चितामें जल कर मर गई। इनको मृत्यु के बाद म्वत्रपाणिः सुराचा कृपाचनप्रमः । माम समादाय इन्द्रसन्य समागतः। असहाय पुत्र-पुत्री दानोंका ऋषियोंके पाश्चममें वरुणो वारपाँधषगः पामधारक पालन-पोषण होने लगा और वै दिन टूर्ने रात चौगुने कृपसारं समादाय पडा मेन समोरयः।" बढ़ने लगे। इन दोनोंने बालकपन में ही व्रत महावली वलासुर विष्णुके कौशलसे मारा गया प्रारम्भ किये ; और प्रभासक्षेत्रमें गमन किया। वहां था। इसलिये उसके पुत्र सुवन्तासुरने क्रोधावही इन लोगोंने महादेव तथा सूर्यको मूर्ति स्थापित को, कर देवों पर पाक्रमण किया। उस समय दानव और धूपमात्यसे उनकी पूजा कर तपस्या करनी गणके साथ देवाका तुमन्न युद्ध होने सगा। देव. प्रारम्भ कर दी। इसको तपस्यासे संतुष्ट हो कर सूर्य- राज इन्द्र देवसों को हारते देख उदयाचल पर्वतके देव वहां गये और चित्रसे कहने लगे,- समान अंदे.ऐरावत हायो पर सवार हुए। इसके बाद "३ मुव्रत । तुम्हारा मंगल हो; तुम हमसे वर पुरन्दरको ऐरावत पर सवार देख कर महाशक्तिमान् मांगी।" अग्निदेवने छागरान पर सवार हो कर प्रदीप्त शक्ति चित्रने कहा, "हे भगवन् ।. भाप अगर मुझसे धारण की। उनको देखते ही महावन्नी यमरानने सन्तुष्ट हुए हैं, तो मुझे यह वर दीजिये कि, मैं सब पौर कृतातके समान कठोर ववदण्डधारी महावस- काममें दचता प्राप्त करूं।' पराक्रान्त चित्रगुप्तने कालकेतुके साथ महिष पर Vol. IV. 192 ।