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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५०६

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कायस्थ और प्रधान मन्त्री श्रीधर • सनक १२ कुटुम्ब पहुंचे थे। फिर दूसरी बार बोस, | देवके “सहयात्री तीसरी बार तीस पौर चौथो वार प्रमी कायस्थोंको ठाकूर, जो वंशपनी ग्रन्बमें कुलीन कर्णकायस्थों के मडली मिथिला ‘गयो। सारांश-कुल ११३ मध्य सबसे बड़े समझ गये हैं, अपनी पिलालिपिमें कायस्थ नान्यदेवको समय मिथिलामें जाकर रहे। 'क्षत्रवतानभानु नामसे परिचित हुवे है। दरभङ्गा जिलेमें नवदी परगनेके बीच पधाडाठाडी नामक अपने देशको न लौटने और मिथितामें ही निवास ग्रहण करनेसे वह 'कर्णकायस्थ' नामसे अभिहित एक ग्राम है। उसमें कमन्चादित्य मन्दिरक वसा. वशेषमें एक ट्टी हुई विष्णु की मूर्तिके पादपीठ पर 'हुवे। राजा मान्यदेवके वंशज राजा हरिसिंह देवने जब मिथिलास्य च वर्णीको पक्षी बनायो, निम्रलिखित शिलालेख उत्कीर्ण है- a कायस्थोंके वंशकी विवेचना करके शुद्धाचरण और “यों थोमवायपविजेता गुपरबमहार्णका 'सच्च पदानुग्रहपके क्रमसे उन्हें श्रेणियों में विभक्त यत् कोयोक्कलित विश्वं दिलीयो धोषणे वरः। मनिया नस्य मान्यस्य चवबहानभानुना। किया। नान्यदेवके साथ गये १३ कायस्थों के वंशधरों ने पनीप्रबन्धके मध्य प्रथम श्रेणीमें स्थान पाया था। देवोऽयं कारितः श्रीमान् श्रीधरः श्रीधरेप च" द्वितीय श्रेणी में उन २. कायस्खों के वंशज रहे, जो "जिनको कीर्तिसे विश्व उच्छनित अर्थात् व्याप्त है, 'बिहुत राज्य मिलने पर बुलाये गये। फिर तीसरी जो दूसरे वृहस्पतिको बरावर वर्णन करनेयोग्य है बारको गये ३० कायस्थो के बंधन द्वतीय यौ और पौर नो गुणरूप रनके समुद्र है, वही श्रीमान् नान्य- चौघी वारको पहुंचे अवशिष्ट कायस्थसन्तान चतुर्थ पति विजयी हों। उन्हीं नान्यदेधक मन्त्री वनपद्मका- श्रेणीभुत दुवे । शंबिय-सूर्यस्वरूप श्रीधरने । उता श्रीधर मामक उक्त कायस्थ मिथिलामें बस जाने पीछे अपने श्रीमान् देवमूर्ति प्रतिष्ठित की है। दूसरे भाइयों की भांति स्थानान्तरको नहीं गये। समसामयिक मिला लिपिमें श्रीधर ठाकुर 'क्षत्र- इसी लिये वह पुरानी मिथिलाको सीमाके बाहर वाङ्गासमानु' लिखे गये हैं। ऐसी अवस्था में निःसन्देश नहीं मिन्नते अर्थात् उमौके भीतर रहते हैं। वह कायस्य क्षत्रिय और वनवासी रहे। गौड़के महाराज नान्यदेवके घरानेसे लेकर पोइनवार सेनवंशीय काट-बात्रिय थे और नान्यदेव उन्हों के 'घरानेके मध्य समय तक मिथिलाके कायस्थ 'ठाकुर भाति थे। रादेशमें गङ्गातीर कांटों का एक कहलाते रहे। फिर किसी पोइनवार भूदेव-वंशाव- प्रधान उपनिवेश रहा। सम्भवतः उसी स्थानसे नान्य. तंस महानुभावको कायस्यों और ब्राह्मणों की पदवीका देव और श्रीधर ठाकुर अपने पामोय खंजन ले सादृश्य प्रसङ्गत लगा। इस लिये उन्होंने गम्भीर करके मिथिता जीतनको प्रारी बड़े। बङ्गालके विचारापन हो कर कायस्यों को 'ठाकुर' पदयोको उत्तरराट्रीय कायस्थों के प्राचीन कुलग्रन्थ, उत्तरराढ़ीय बनेकानेक पदवियों में विभक्त किया। नो जिस कायस्थों के पूर्वपुरुष 'श्री कर्णवंशसम्भूत', श्रीकर्णवंश- विषयमें निपुण देख पड़ा, वह उसी पदवौसे विभूषित | श्रेणीमुक्त' और 'श्रीकर्ण के कुचानुग कहलाये हैं। हुवा। कायस्यों ने राजोपनीयी होनेसे संहर्ष नामा वन्देशक प्रसङ्गम उक्त प्राचीन कुम्नपत्रीका प्रमाण -प्रकारकी उक्त पदवियों को स्वीकार कर लिया । उहत हो चुका है। मालूम पड़ता कि राढ़ीय- भाजकलके मैथिक्ष पजियार कहा करते कि कायस्थों के आदिपुरुषो को भांति श्रीधरदास और कर्णाटकसे मिथिलावासी होने कारण मिथिलाके कायस्थ कर्णकायस्य' कहलाते हैं। परन्तु हमें सम- उनके कुटुम्बो 'कर्णकायख' नामसे मैथिल-समाजमें परिचित हुये हैं। बालके सामयिक शिवालिपि वा अन्यसे इसके समर्थनका मैथिल कायस्थ समाजमें भो. दास, देव कायस्यों की भांति कोई प्रमाण नहीं मिला। उलटे; काटक मान्य निधि, मक्षिक, साम, चौधरी, रङ्ग प्रत्या