पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११ 1 चढ़ी थी। राजकीय लेखक (मुतसदी) नगर पौर निक- करनेको जाते हैं। संस्कारांदिके समय कुलगुरु रंस जियों के शासक रहे। वह गुजरातवाले सूवे- पौरोहित्य करते, जो पौदीच्य, यौमासी वा पारापर दारके अधीन न थे, दिल्लीको राजसमासे सीधा ब्राण रहते हैं। सम्बन्ध रखते थे। सूरतके अट्ठाईस विभागों की साधारण हिन्दू पर्वो के अतिरिक्त मायरों में दूसरे मालगुजारी वही वसूल करते थे। १८८६ ई. तक भी कई पुण्यदिन होते हैं। वह कार्तिक शक्ता पौर "अंगरेजी गांवों में और १८८५ ई. तक बड़ोदाके | चैत्र शक्ता हितीयाके दिन चित्रगुप्त पूजन और भगिनी- २८ गांवों में प्रधानसः कायस्य ही मजुमदार रहे। कर्तृक प्रस्तुत खाद्य मौजन करते हैं। उनका पाकार-प्रकार ब्राह्मणों से मिलता है। मटनागर कायस्थ अहमदाबाद, बड़ोदा और अल्प- गुजराती कायस्थों को निराली बैठक मेलकथाला संख्यक सूरतमें देख पड़ते हैं। वाल्मीक और मकान (गृह) है। वहां समवयस्क लोग सन्ध्याको माथुर कायस्थांकी भांति वह भी गुजरातको उत्तर- जा कर मिन्नते, हुक्का पीते, धार्मिक गीत सुनते या भारतसे गये, जहां आज भी उनकी संख्या पधिक सुनाते पर आमोद-प्रमोद करते हैं। उन्हें गानेका भटनागर दूसरे कायस्थों को मांति अपनेको बड़ा शौक है और उनमें कुछ अच्छे अभिनेता भी हैं। चित्रगुप्तका वंशधर बताते हैं। पद्मपुराणमें लिया प्रत्येक कुटुम्बको एक अधिष्ठात्री देवी होती हैं। है कि चित्रगुप्तके १२ पुत्रों में एक पुत्र भट नामक पौदीच्य ब्राधण पौरोहित्य करते हैं। अपने सापके साथ श्रीनगर संस्थापन करने भेने गये है, पोल धार्मिक प्रधानों महाराष्ट्रों के अतिरिक्त, जिन्हें विवाहके वही श्रीनगरके शासक हुवे। उन्हींसे भटनागर नाम समय वुन्ताते हैं, बाल्मीक कायस्थ ब्राह्मणों के निकला है। उनमें व्यास और दास दो श्रेणी है। प्रति विशेष सम्मान प्रदर्शन नहीं करते। दूसरे इन दोनो श्रेणियों में व्यास ऊंचे समझ जाते हैं। वैष्णवोंकी अपेक्षा महाराष्ट्रोंसे भी वह न्यून भेदभाव पहले वह दामों के हाथका बना भोजन ग्रहण न करते रखते हैं। थे। व्यास दासों की कन्या ले लेते, परन्तु पपनी माथर कायस्थ . अहमदाबाद, बड़ोदा, दभोई, कन्या उन्हें कभी नहीं देते। पाक्षति, परिच्छद सूरत, राधनपुर और नडिप्रादमें होते हैं। १५७३. (पोशाक), भाषा, खाद्य, गृह पौर उपजीविकामें १७५० ई. को मुगल-सूबेदारके साथ वह लेखक भटनागर, वाल्मीको पौर माथुरों से मिलते हैं। वह और दुभासियेकी भांति गुजरात गये थे। वक्षभाचार्य सम्प्रदायभुक्त है। दशहरा पौर कार्तिक ५० वा ३० वर्ष हुवे माथुर मांस भोजन करते थे। शुक्ला द्वितीया उनका विशेष पुण्याह है। किन्तु अब वह निरामिषभोजी हैं। चैत्र और पाखिन दिन चित्रगुप्तके सम्मानार्थ एक गूढ़ छन्द मास पूनाके समय माथुर मांस और देशी सुरा लिखा और तलवारके साथ पूजा जाता है। देवीको समर्पण किया करते थे। किन्तु गुजरातके प्राचार-व्यवहार वाल्मीकों की अपेक्षा मायुरो से ब्राहाणों और वैश्योंसे घनिष्ठ सम्बन्ध होने पर उन्होंने पधिक मिलता है। भटनागरोंका पौरोहित्य श्रीगौड़ अपनी वह रीति छोड़ दी है। पब मांसके बदले खेत ब्रामण करते हैं। उनमें कोई चौधरी या मुखिया कुमाण्ड और सुराके स्थानमें शरबत चढ़ाते हैं। नहीं होता। बन्लाई प्राता माधुरी में कोई रामानुजी, कोई वामाचारी और कोई शैव हैं। प्रत्येक भवनमें एक कुलदेवी काली, बम्बई प्रदेशमें चान्द्रसेनी प्रभु, ध्रुव प्रभु, दमन प्रभु दुर्गा वा अम्बा रहती हैं। माथुरोंके पूज्वदेव सासनी और ब्रह्मचनिय बीके कायस्थ रहते हैं। (बालरूप कण), गणपति वा.महादेव। स्त्री दाधियात्वमें बीस हजारके पधिक घान्द्रसैनी पुरुष दोनों शिव; विच और माता मंदिर दर्शन ! प्रभुवोका बाम । उनके मय बना पाने के उस उनका .