५१७ और प्राहियन्दके योगमें पञ्चमी सगती है। पक्षम्यपाल. पूजा असे मतमी विभलिगती है। किन्तु उसमें प्रति शब्दका प्रयोग नहीं होता। मसितोतसकाम्या वतीया परिमिः । ॥ २२१. अप, पासपोर परि शब्दके योगमें पञ्चमी पाती है। प्रतिनिधिप्रतिदाने च यथान् । च। पाराश। प्रसित एवं सच क शब्दयोगमें बतीया तथा सप्तमी विभक्ति रखते हैं। गचने चलपि । पा Tant पा ११ । प्रतिनिधि और प्रतिदान अर्थ प्रति अष्टके प्रयोगसे पञ्चमी पड़ती है। अक्षय'ये पद्यमी । पासार । लुबन्त नक्षत्र शब्दमें पधिकरण पथ पर तीया पौर सप्तमी विभक्ति लगायी जाती है। सक्षमीपञ्चम्यो बारक- कर्तृशून्य ऋण तुका खरूप होनेसे पक्षमी पाती मध्ये। पास। विदयका मध्यवर्ती जो कालवाचक है। विभाषा गुपेऽस्त्रियाम् । पाराशर५। अस्त्रीसित गुण- वाचक शब्द हेतुखरूप रहनेसे विकल्पमें पक्षमी एवं पध्ववाचक शब्द रहता, उसमें पञ्चमी और होती है। प्रथा विना मानामित तीयान्यतरस्याम्। पारा । सप्तमीका प्रयोग पड़ता है। यवादधि यस वरवचने पृथक्, विना और माना शब्दके योग, हतीया, सब सघमौ। पास। जो जिससे पधिक पथवा ईश्वर द्वितीया एवं पञ्चमी विभखि लगाते हैं। बरणे व स्तोकाम ठहरता, उसमें सप्तमीका प्रयोग लगता है। उसको कच्छ,कतिपयस्यासन्नवधनस्य। या १२२। प्रव्यवाची स्तोक, छोड़ साधु वा पसाधु शब्दके प्रयोग और कर्मपदयोगसे भल्य, कच्छ, और कतिपय शब्दके उत्तर करणमें निमित्तवाचक शब्दमें भी ससमी विधि होती है। ढतोया तथा पञ्चमी विभक्ति पड़ती है। दूरान्तिकार्थेभ्यो यथा- द्वितीया छ। पा रा०१५। दूर एवं ममोपार्थ शब्दके "धर्मणि होपिन इन्ति दन्तयोईन्नि घरम् । उत्तर द्वितीया और पञ्चमी विभक्ति रखते हैं। कैगेषु चमरौन्ति सोषि पुष्यक्षको इसः" पश्चमी विमले। पाराश। जिससे कुछ निकाल लिया उन सकत कारकोंके मध्य उभयकी प्राप्ति- जाता, उसमें पञ्चमी विभक्तिका प्रयोग पाता है। सम्भावना रहनेसे परवर्ती कारक ही लगता है। पधिकरणका लक्षण है,-पाधारोऽधिकरणम् । यथा- पा 118५ । क्रियाके पाधारस्वरूप क कर्मक पाधारको "अपादान सम्प्रदान करवाधारकर्नयाम् । पधिकरण संज्ञा है। उसमें सप्तमी विभकिशोती है। कतुंगोमयसम्प्राप्तो परमेव प्रवर्तते।" सतम्यधिकरणे चा पा राशः अधिकरण और दूर तथा सम्बन्धको कारकता नहीं होती। उसोसे वा निकटा शब्दके योगमें सप्तमी लगती है। यस च कारकोम गिना भी नहीं जाता। सम्बन्ध अर्थ में और भावन मावक्षवषम्। पाय जिसकी क्रिया द्वारा कारक व्यतीत अन्य प्रथम षही विभक्ति होती है। क्रियान्तर लक्षित होता, उसमें सप्तमी पाता है। षष्ठी शेषे । पा राशन कारक पौर प्रातिपदिक अर्थ पशो चानादरे। पाराश। अनादर अर्थमें षष्ठी भौर | व्यतिरिख स्वकीय स्वामिभावादि सम्बन्धका नाम शेष सप्तमी विभक्ति होती है। खामोशाधिपतिदायादसाधि है। सोम षष्ठी विभक्ति होती है। पख कारक विभति- मविभूमसूतैय। पा राक्षसा स्वामी, ईखर, अधिपति, समूहकी भांति अर्थ विशेषमें भी षष्ठी विभलिका विधान दायाद, साचो, प्रतिभू एवं प्रसूत शब्दके योगमै षष्ठी है। यथा-वडी हेतुप्रयोगे । पा रा३२२६ । हेतु शब्दके प्रयोगमें पौर सप्तमी विमति लगती है। पायुतकुशलाभ्यां चासेवायाम् । हेतुवाचक और हेतु शब्द उमय स्थल पर षष्ठी विभक्ति पा 1३13.1 भायुद्ध और कुचल शब्दके योगमें तादर्य होती है। सनाधक्ष तोया च । पाराशा हेतु शब्दक अर्थ षष्ठी तथा सप्तमी विमति होती है। यतय प्रयोगसे सर्वनाम भब्द और हेतु शब्दमें षष्ठी विभति निर्धारणम् । पार| जाति, गुण, क्रिया और संक्षा लगती है। पहातमर्थ प्रव्ययेन : पा ३ । असमुच् पर्थ में हारा एकदेश्य मात्र जिससे पथक् किया जाता, उसमें कप्रत्ययान्त शब्दके योगसे यष्ठौ विभक्ति होती है। सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाता है। साधुनिपुयाभ्यामर्चावाम एनपा द्वितीया । पा ०३.२१ । एनए प्रत्ययान्त शब्दकके योगमें सक्षममतः। पाराशर साठ और निपुण शब्दकी योगमें हितीया और षष्ठी पाती है। दूरान्तिकाय: षड्यन्धनखाम् । Vol. IV. 130
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५१५
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