कार्तवीर्यारि-कात्तिक यन्त्र मामे, कृत्तिका-प्रण। १ वैशाखादि.दादयमासके बनता है। प्रथवा अन्य वस्तुका अभाव होनेसे सकन्न कामि केवल तान द्वारा दीपपात्र निर्माण करते हैं। मध्य सप्तम मास, कार्तिक, उसका सस्क न पर्याय - डत दीपमें कार्यानुसार एक्ष, तीन, पांच या सात वाइन, जज, कातिकिक और कोजुद है। वह चान्द्र वत्तियां लगती हैं। अल्प कार्य में अल्प और महत् और सौरदस दो प्रकारका होता है। फिर चान्द्र- कार्य में अधिक संख्यक बत्तियां डालने की विधि है। कार्तिक भी मुख्य और गौण भेदसे विविध है। सूर्य कार्यविशेष, सफेद, पीली, साल, कुसुम्भी, कानी और सम्ताराभि पर जानसे शुक्ल प्रतिपदसे प्रारम्भ कर . रंग रंगकी बत्तियां बनायी जाती हैं। अभाव में केवल पमावस्या पर्यन्त गिनसे मुख्य पान्द्रकार्तिक पौर सफेद सतकी पत्तियाँसे काम चलाते हैं। पूर्व कृष्ण प्रतिपटुसे पूर्णिमा पर्यन्त गौण चान्द्रशार्तिक कार्तवीर्य के लिये इस प्रकार दीपदानको विधि होता है। फिर सूर्य के तुला राशि पर अवस्थान करते सौर कार्तिक मास लिखा जाता है। देख खत: सन्देश हो सकता है-वे उस प्रकार क्यों उपास्य है। कार्तवीयं दत्तात्रेयसे योग लाम कर "मोनादिम्ली रवये पामारमा प्रघमवरी। अयश चक्रावतार रूपमे जन्मग्रहण कर वैसी उपा मयतेऽष्टं चाटनासाय वाचा बादश घता" (व्याम) समाके योग्य हुये हैं। इनके ध्यानमें चक्रावतारत्वका पूर्णिमा कृत्तिकानक्षत्र मिलने के कारण ही उसका उल्लेख मिलता है। यथा- माम कार्तिकमास पड़ा है। शास्त्र में वह पुण्यमास " य सहसवानिखिलचोगी"दिती माना गया है। उसोसे उन मासके पास्तिक धर्म- इलार्मा शतपचन च दशाशनि सान्ता । पिपासु व्यशियों का कर्तव्य पुराणमें इस प्रकार कहा कण्ठ पाठकमाख्या परिवारकावतारोप गया- पाथात् सन्दनगोऽरुपामवसनः योकार्तवीयों दुः" कार्तिक में प्रत्यक्ष प्रति प्रत्यूष गादोत्यान कर प्रातः कातवीर्यारि (सं० पु.) कार्तवीर्यस्य अरिः शल, नान करना विधेय है। निज शरीरको किमी प्रभार ६.तत्। कार्तवार्य के शव परशुराम। कामवीर्य ने व्याधिग्रस्त करने की इच्छा न रखनेवाले लोगों को जमदग्निक पाश्रमसे होमधेनुज्ञो चुराया था। इमीने | कार्तिक्षय चवश्य प्रातानान करना चाहिये। फलतः नमदग्निके पुत्र परशुरामने इनको मार डाला। उस मास उक्त समय पर नान करने से सबको खात्य कातवेश (सं.वि.) सतवाय इदम्, कसवेर-प्रण। लाभ होता है। धमपिपासासे नहानेवालोंको निम्न- कतवेशसम्वन्धीय। लिखित साप और मन्त्र पढ़ मान करना चाहिये। कातखर (सं० क्षी) तस्वरे तदाख्य प्राकरविगैपे सवधवा- भवं अथवा कताः पठिताः स्वरा येन सः तस्वरः पो तत्सत् पद्य कारिहमासे पसुकपचे पसकतिधावारम्य तुला. सामगायकः तस्मै दक्षिणालेन देयम्, क्लस्वर-प्रण । राशियरवि वाचन प्रयई मुरुगोव: गोषमुकदेवगर्मा श्रीविमोपिनाम: शे । मा आरामा १ स्वर्ण, सोना। "स तप्कातर- प्रतिसाद मई करिये। माखरादरः । (भाष १।२०) २ धुस्त रफाल, धतूप। कार्तास्तिक (सं.यु.) शान्तं वैत्ति, कनान्स-ठक । "दों कार्तिक करिष्यामि माताधान बनार्दन । प्रौपई तब देवेग दामोदर मया सा" सायाहि स्वान्नाट ठक् । पा ५६। ज्योतिर्षिद, नजमो, होनहार बता देनेवाला। सात मास प्रत्यंइ निधामुखको विषुट की कार्यायपि (सपु.) कायस्व अपत्यम्, काव्य-फित्र पाकाचादिमें मृत सैन्नादि द्वारा प्रदीप देक्षा कर्तव्य सलोपः। -चयो यचः । पा. कर्ताके पौत्र । है। प्रदीप देते समय निम्नलिखित मन्त्र : प्रदना काति (संपु..) शतके गीतापत्य । पड़ता है- कार्तिक- (स'• पु०) निशा नशप्रयुशा घोर्थनासो "का हादराय नम तुन कामया सह। प्रदोष ते प्रयच्चामि नम गन्नाय धरो।" 134 । धान मन्त्र-. Voll Ve
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५३२
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