५३४ . पड़ता है,- कार्तिक प्रदीप प्रदानसे विशेष फल कामना करनेवालों को दोप अनन्तर द्वितीया तिथि पर्थात् माहितीयाक दानके पूर्व स्नानवत् सङ्कल्प कर और तदनन्तर मन्त्र दिन दीर्घजीवनको कामनासे भगिनी के हाथका भोजन पढ़ दीप देना चाहिये। करना विधेय है। उस दिन स्वख भगिनीको दम्नान- कार्तिक मासमें क्वष्णपक्षको चतुर्दशी अर्थात् । इरादि द्वारा सम्मान कर और उसके हाथका बना भूतचतुर्द शोके दिन स्नानान्तर यमतर्पण कर निम्न सादर एवं मानन्दपूर्वक भोजन करना बहुत आवश्यक लिखित मन्त्र पाठपूर्वक मस्तकोपरि अपामार्ग घुमाना है। भोजन के समय यमराज, चित्रगुप्त, यमदूत और यमुनाको पूजा कर निम्नलिखित मन्त्रपाठ पह "शीतोषसमायुक्तमकएकदवान्विनः । गरुष ग्रहण कर खाना चाहिये। कनिह भगिनी हर पापमपामा थाम्यमाणः पुनः पुनः।" होनेसे इस प्रकार मन्त्र पढ़ तो है,- उस दिन लोकाधारके हेतु चतुर्दश शाक भोजन "घातप्तवाशाताई मुल मतमिदं पमम् । करना विधेय है। शास्त्रोक्त शाकोंके नाम हैं-श्रोल, मौतये यमराजस्य यमुनाया विशेषतः " केक, वास्तुश, सर्पप, काल, निम्ब, जयन्ती, शालिञ्चो, भगिनी ज्येष्ठा रहनेसे "मातस्तवानुजाताई"के हिलमोचिका, पटोत, पितपापरा, गुडूची, भण्डाती स्थानमें "धातस्तवाग्रजाताई कह कर गण्डप प्रदान और सुपिनु । किन्तु लोग उक्त थाक संग्रह न कर करना चाहिये। जो पाव वही खा जाते हैं। एसटव्यतीत कार्तिक मासमें शतपक्षको नवमो अनन्तर अमावस्याके दिन बालक, पातुर और हद तिधिको सोमवार के दिन नेतायुगको उत्पत्ति होती व्यतिरेक सबको दिवाभीजन मिषित है। उस दिन । उससे वह दिन प्रतिपय पुण्खांह माना गया पार्वण श्राद कर प्रदोषकाल में पिगएके उद्देश उल्का- । फिर कार्तिक मासके शक पचकी एकादगोये दान करना चाहिये। किसी कारण बाधम करते भी पूर्णिमा पर्यन्त पञ्चतिथिको वकपश्चक कहते हैं। सल्कादान देना पड़ता है। फिर प्रदोषकालमें लक्ष्मी, शास्त्रके कथनानुसार उन तिथियों में वक भी मत्स्य नारायण और कुवेरकी पूजा करना प्रास्तिक भक्षण नहीं करते। प्रतएव वकपको किसीको धार्मिकों का कर्तव्य है। मांसादि खाना विधेय नहीं। एतव्यतीत भूत- अनन्तर प्रभात अर्थात्, प्रतिपत् तिथिको प्रक्ष. चतुर्दशीके पीछे अमावस्याको कालीपूजा, शक्त मोड़ादि करना चाहिये। धूतकोड़ा शास्त्रनिषिद नवमीको जगहावी पूजा और संक्रान्तिके दिन कातिक होते भी उस दिन समस्त वर्षका शुभाशुभ जानने की पूजा होती है। पूजाको पद्धति नानाविध है। इससे बहुत पावश्यक है। उस क्रीड़ामें जीतनेवालाका यहां उसका कोई उल्लेख नहीं किया गया। संवत्सर शुभ और हारनेवालेका सवत्सर पशभ कोष्ठोपदीपक मतसे कार्तिक मासमें जबलेने- होता है। केवल उसी दिन कोड़ा करनेका कारण वाले युद्धविशारद, व्यवसायपटु, नानाविध विस्य शास्त्रवित्, सुवला और पतिशय सुन्दरामप्ति होते हैं। "यो यो बाहरमान विष्ठत्यस्यो पुधिडिर। गरड़पुराणके मतानुसार कार्तिक मास में विपके बदेबादिमा तेन तव गम" प्रयाविहि" लिये तुत्तसौदान कर्तव्य है। इससे पस गोदाममा बोष्यक्ति जिस भाव अर्थात् प्रानन्द वा अखसे फल मिचता है। ब्रह्मपुरावके मससे देवया, पाकाय इस दिन काल बिताता, उसका सवत्सर उसी भावसे और महपमें तादि द्वारा दीपदान करना चाहिये। चला जाता है। अतएव उस विषयमें सबको सरेष्ट इससे अक्षयपुण्य होता है। ब्रमपुराणके मतानुसार रहना पावश्यक है, जिसमें उक्त दिवस मनासखसे इस मासमें इवियाब खान विष्णु का पद मिवना पतिवाहित किया जा सके। है। हविष्य द्रव्य वर-अखिन मन्तिापाय, - !
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५३३
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