कापस हो दृढ़ निकलेगां। फिर वह जितना हो परिष्क त “नन्तुवायी दशपलं दद्यादकपलाधिकम् । होगा, उतना ही उत्कष्ट ठहरेगा। पतोऽन्यथा वर्तमानी दाप्यो बादशक दमम् ॥ (मनु 110) इस वातका निर्णय करना सरल नहौं-भारतवासी तन्तुवाय टहस्थसे वुननेको १० पन्त सूत लेकर उसे कबसे रुईका व्यवहार करते हैं। क्योंकि वेदमें भी मांड देने के कारण ११ पन मूत देगा। यदि उससे उसका विवरण है,- न्यून देगा, तो (राजकलंक ) हादध पण दण्ड होगा "भूपो.न मिश्रा व्यदन्ति माध्यः, सोतारं ते शतक्रती विन' मे पस्य भारतमें बहुकालसे प्रचलित होते भी पायात्य रोदसी ।" (ऋक्स हिता ।।१०८) देशमें कार्पासका व्यवहार वैना न था। अच्छी प्रकार भृषिक जिस प्रकार सूत्र काट विगाड़ता है, समझा जाता है कि भारतसे पश्चिममें क्रमम: फैन कर हे शतक्रतो! आपके स्तोता हम लोगोंको दुःख भी कार्यास व्यवहृत हुवा है। उसी प्रकार दंशन कर सताता है। सम्भवत: अरवी भाषाके “कतान" शब्दसे ही युरो. सायणने अपने भाष्यमें लिखा है कि भातका पके इतालियों ने “कतोन" फरांसीसियोंने "कोतान मांड रहनेये सन्तुवायके सूत्रको मूसा प्रीतिपूर्वक खाता और अंगरेजोन काटन शब्द पाया होगा। किन्तु यह है। सुतरां यह.स्वच्छन्द अनुमान कर सकते हैं कि निःसन्देह है कि फारसीका "कुरपाश" शब्द संस्कृतके .स.समय कार्पास वस्त्रवयनको प्रणाली प्राविण्क्कत कार्पास शब्दका अपमंश है। प्रोक "करपसन्" हुई थी। वयन देखो। शब्दसे पाट या मनका बोध होता है। ग्रीक भौगोलिक सूतको मांड़ लगा कठिन करने की व्यवस्था हिरोदोतास्ने भारतके कार्यासविषय, पर अपनी भी उस समय प्रचलित थी। वैसा न होनेसे मूषिकका पुस्तकमें इसप्रकार लिखा है,-"वहां वन्य वृक्षके उसके ऊपर उतना नाम कैसे होता। फलसे एक प्रकारका रूयां निकलता है। सौन्दर्य में वह पावलायन-पौतम ब, १४ चोर लावायन-ौत सूव १।६।। मेषके लोमसे भी उत्कृष्ट होता है। भारतवासी उससे प्रभृति वैदिक सू वर्म कार्यास शब्दका स्पष्ट उल्लेख है। परिधेय वस्त्र बनाते है" | थियोफ्राटस नामक किसी दूसरे कार्यासके व्यवहारको कथा मनुसंहितामें भी भौगोलिकने भी बच देख कार्यासको वर्णना लिखो है। 'देख पड़ती है,-. अलेकमेन्दरको नौसेनाके अध्यक्ष नियार्कासने भारत- "कासमुपवीत स्थाविपस्योईवत्त वित्" (मनु, १६४४) वासियोंके परिधेयका उल्लेख इस प्रकार किया है, प्राधणका उपवीतसूत्र कार्पासके सूतसे प्रस्तुत "वह पेड़के रूयका वस्त्र बनाकर पहनते हैं। उससे होना भावश्यक है। उसीसे सम्भवतः मन्दिर और मठके पदका मध्यदेश पर्यन्त पाहत रहता है। फिर स्कन्ध निकट कार्पास वृष रहता है। देशमें एक चद्दर और मस्तकपर एक उष्णीष रखते “भ कसास्थि न तुषान् दोध मानिनौविषु।" (मनु, ४०८) हैं। यही उनका समस्त परिधय है। दो सहन वर्ष मनुके सतमें तूलाके वीज, तुष सकल ट्रष्योंपर पा. प्रतीत हो गये, किन्तु भारतवासियोंका परिधय रोहण करना न चाहिये। पाज भी वही है। ई. प्रथम शताब्दमें कोई "कासकोटमौर्णानां विश कशस्य च । ग्रीक भ्रमणकारी परवउपसागरसे भारतवर्ष पचिगन्धौषधीनाव रनायव पई पयः॥".(मनु, १११.१३९) भडोंच नगरमें वाणिज्य करने गये थे यावस्करसंहितामें इसप्रकार विधि है. "शते दशपयादिरी कार्याससौविके । वह अपने पुस्तक लिखते है कि अरब भारतवर्षसे मध्ये पषपलावे सखे तु विपला मता ॥” (१ १८९) कार्पास ले जाकर लोहित सागरने उपकून्त पर प्रदूली नामक स्थानमै व्यवसाय करते थे। क्रमश: वहाँसे अर्षा और स्थल कार्पासके सूत्र को सेकड़े पीछे १० भारतक-पातिपाक, अरियक्ष पौर वारिगाजा (पा. पल मांड डाल बढाना चाहिये। फिर मंझोले कपड़े में निक भडोंच). नगरके साथ वाविन्यसापित-हवा । ५ पल और सूक्ष्म, ३. पन कड़े पोछे मार पड़ता है।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५३९
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