पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५५१

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५५२ कालि मिलती है । गुहाके सन्द ख (आगे) सिंहार है। सिंह. हारकी दोनों दिक् दो स्तम्भोंके होने का अनुमान किया जाता है। किन्तु आजनल उनमें एकमात्र वर्तमान है। इसके निरय करनेका उपाय नहीं-दूसरे स्तम्भक स्थानमें एक छोटा प्रस्तर-मन्दिर बना था अथवा एक ही स्तम्भ बराबर रहा। स्तम्भ गोलाकार है। उस पर ३२ ढालू पच्च बने हैं। वह भूमिसे समभावसे ऊपर उठा स्तम्भक उपरि भागमें कारनिस या कगर है: क गरके अपर हारो ओर चार सिंहमूर्ति खोदिन हैं। किसी किसीके अनुमानमें उक्त चारो मूर्तियां एक चक्र धारण करती थीं। सिंहहार पार होते ही दूसरा एक हार मिलता है। उसका विस्तार प्रायः ३४ हाथ होगा। उसके दोनों पाखं दो स्तम्भ हैं। दोनों स्तम्भ भष्टकोण वा अष्टपल विशिष्ट हैं। उनमें नोचे या जपर कोई कारशार्य देख नहीं पड़ता। फिर भी उपरिभागपर दोनों स्तम्भौर दो प्रशस्त प्रस्तरफलक लगे हैं। उसके पीछे फिर कुछ जपर की ओर एक कंगनी है। उससे चार स्तम्भालति कुछ नीचे उतर गयी हैं। उसके प्रन. न्तर कुछ भागे बढ़ने पर मन्दिर में प्रवेश करनेको तीन द्वार हैं। उनमें भाई उम्मु ना है, किसी प्रकारके कपाट नहीं लगे। तीनो द्वार एक कतारमें प्राचीरवत् प्रस्तर. खगड़ से संलग्न हैं । उक्त प्राचीर हारके मस्तक पर्यन्त ममतल भावमें अवस्थित है। उसके उपरिभागमें शन्य है । उसी स्थानसे पालोक (गेशनो) मन्दिरमें पहुंचता है । शून्य के ऊपर बड़ी मेहराव है। मेहराव मन्दिरके प्रवेशद्वारसे शेष पर्यन्त विस्तृत है। उस कार्लि। झार पार होनेसे अभ्यन्तरको अपूर्व शोभा देख कर कतार इकतार स्तम्भणी दोनो पाख-दण्डायमान मनमें एक अपूर्व भावका उदय होता है। कैसी शिल्प है। दोनो पाव के स्तम्भक पीछे दोनों ओर.बरामदा चातुरी! क्या असम्भव परिश्रम ! दोनो पाखपर दो है, बरामदेसे मध्यस्थलको मन्दिर में पाने के लिये दोनों बरामदे दोनों ओर चले गये हैं। मध्यस्थलमें नाट्य पाच के स्तम्भोंके मध्य स्थान विद्यमान है। भूमिके मध मन्दिरका मण्डपं है। प्रवेशद्वारको अपरदिक् गुम्बज- स्थलसे मेहरावके मध्य स्थान तक नापने पर सम्भवतः जैसा चैत्य का स्थान है। द्वार में प्रवेशकर देखते हैं कि तीस हाथ पन्तर निकलेगा । एक ही सभी