कालहस्ती ५७y. विजयनगरकै रानासे उसे पाया था। पभिषेनका जलं सर्प के छू गेया। उसने छैच हो कालहस्ती पूर्व में मन्द्रान एवं काचीपुर और दक्षिणमें | हंस्तो मुण्ड में दांत मारा था। इस्तीने मी विषकी ज्वालासे अस्थिर हो सर्पको आघात किया। शेषको वन्दोवास तक विस्त त थी। औरंगजेबकी दी हुई 'सनदमें देखते हैं कि कालहस्तौके पालिगार उस समय दोनोंने पश्चल पाया था। दो परमभक्तोंकी वैसी ५ हजार सैन्धके अधिनायक थे। १७८२ ई० को वह अवस्था देख महादेवने उन्हें फिर जीवन प्रदान किया। अगरेजोंके हाथ लगी। १८०२ ई०को गवरनमेण्टने फिर उन्होंने उमयको चिरस्मरणीय बनानेके निये उसका चिरस्थायी प्रबन्ध किया था। जमीन्दारके उनकै नाम पर अपने मन्दिरका भी नाम “काल- वंशवाले एक व्यक्तिको अंगरेजोंने राजा और सी. हस्ती" रख दिया। (काल अर्थात् सर्प पौर हस्ती "एस. आई० (C.S. I.) का उपाधि दिया है। अर्थात् हाथो दोनों मिलकर कालहस्ती शब्द वना है।) देशको फसलका आधा हिस्सा प्रजा जमीन्दारको तीर्थमाहात्मा मतसे कवापन नामक किसी व्याधने देती है। कालहस्तीको मृत्तिका रक्तवर्ण और तालुका महादेवका पनुग्रह नाम किया। वह पर्वतके अपर मिश्रित है। साम और लौह वहां मिलता है। रहता था। किन्तु प्राधार करने के पूर्व व्याध पर्वतसे घोका कारखाना भी खुला है। उतरता और प्राक्षाय ट्रय महादेवका प्रर्पपकर स्वयं उस जमीन्दारीका प्रधान नगर कालहस्ती वा प्रसाद ग्रहण करता था। कुछ दिन पीछे उसके मनमें श्रीकोलस्त्री है। वह पक्षा० १३.४५३"३० और पाया कि महादेवका एक चक्षु नष्ट हो गया। उसी देशा० ७. 88 २८“पू० पर सुवर्णमुखी नदीके तौर धारणासे उसने अपना एक चक्षु नाच महादेवके मेंष्ट मन्द्राज रेलको उत्तर-पश्चिम भाखाके विपति टेवनसे चपर लगा दिया। फिर कुछ काल उसे देख पड़ा प्रतिनिकट अवस्थित है। लोकसंख्या प्रायः दश कि देवदेवका दूसरा चक्षु मी विगड़ा था । उसोसे उसने इनार है। नगरमें जमीन्दारका वासभवन बना है। अपना दूसरा चक्षु भी निकाल महादेवके चक्षु पर नंगा वहां एक मजिष्ट्रेट भी रहता है। बाजार बहुत बड़ा दिया। उस समय व्याधने अपना एक पैर महादेवक है। निकटस्थ ग्राममें उत्तम वस्त्र प्रस्तुत होता है। चक्षुके निकट रखा था। उसीसे पाज भी महादेवके कालहस्ती एक तीर्थ स्थान है। वहीं अनेक देव चक्षुमें उसका पर्दचिङ्ग देख पड़ता है। देवादिदेवने मन्दिर विद्यमान है। उनमें शिवमन्दिर ही प्रधान उसे सालोक्यमुक्ति प्रदान की। महादेवके निकट दक्षिणके स्मात ब्राह्मण कालहस्तीको द्वितीय उसका एक स्वतन्वं लिङ्ग विद्यमान है। महादेवक वाराणसी बताते हैं। उका मन्दिर-विमाग नगरके साथ उसकी भी पूजा होती है। मन्दिरके प्रवेशखान- मैस कोणम पर्वतके निम्नमाग पर अवस्थित है। पर हस्ती, सर्प और अनामिकी मूर्ति बनी है। कालहस्तीके माहात्म्यमें लिखा है, "ब्रह्माने तपस्या दूसरे स्थानाम महादेवको नो मूर्ति देख पड़ती, उससे करनेको कैलास पर्वतके शृङ्गका एकांश यहां लाकर कालहस्त्रिको मूर्ति स्वतन्त्र लगती है। कालहस्तीको रखा था। उसीसे उसका नाम दक्षिणकैलास है। मृतिका नाम वायुमूर्ति है। साधारणतः गोलाकार ब्रह्माने स्वयं इस मन्दिरका मूल स्थापन किया है।" दण्डके तुल्य होती है। किन्तु उक्त वायुमूर्ति चतुष्कोण चोल राना और विजयनगरके कृष्णरायने उसका है। मन्दिरमें किसी ओर वायुके प्रवेशका पथ नहौं, अपरापर अंश बनवा दिया। महादेवको वायुमूर्ति | किन्तु लिङ्गकै मस्तकपर जो दीप लटकता, वह सर्वदा - वहां विराजित है। कथनानुसार एक सर्प पार एक प्रत्य हिसा करता है। यह अभ्यन्तरमें अन्यान्य इस्ती उभय महादेवको पूजा करते थे। सर्प अपने भनेक दीप. हैं !, किन्तु दूसरा कोई उस प्रकार नहीं मस्तकका मंणि- महादेवं पर चढ़ासा और इंस्तो. हिचता! सम्भवतः उसोसे डस लिक "वायुखिङ्ग जिलाभिषेक सगासा- था। किसी दिन इस्ती कहलाता है। महादेवके साथ पार्वती देवो भी है।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५७४
दिखावट