पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५८६

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45€ कालिचर--कालिदास नहीं-किसनी दूरसे हजारों लोग जा जा कर उनकी चित्रपर गुप्तवंशीय राजप्रदत्त शिक्षाम्लिपि लगी है। पूजा करते है। नीलकण्ठ मन्दिरको धाम पोर पर्वतके पार्श्व में समतल भूमि पर भो एक जगह एक प्रमशस्त पथ है। उसमें बहुसंख्यक लिङ्गमूति । सौ ही मूर्ति और वैसी ही शिलाजिपि है। प्रतिष्ठित है। वह पथ मौलकण्हका मन्दिर र पपर स्थानका नाम सरवन है। कालिनर पतको उत्तर दिल को जा निकला है। मन्दिरके स.योंके मध्य पोर भूमिसे ४०४५ हस्त जपर गङ्गासागर नामक मध्य भूमिमें प्रस्तरखण्ड पर कितमा हौ लेख देख एक सरोवर विद्यमान है। वह प्रायः १०० इस्त दीर्घ और ८.४स्त प्रशस्त है। उसकी तीन और सापामा- पड़ता है। फिर उसमें बहुत कुछ यात्रियाँ हारा खादित है। बाइर स्थान स्थान पर भगवान्के दश वनी समान चली गयी है। एक और समरने को छोटी पवमार, ब्रह्मा, हरपाईती प्रमृतिको अनेक मूर्ति सिड्डौ और चारो ओर ऊंचा किनारा है। किनारे भग्नावस्थामें इधर उधर पड़ी हैं। नीलकण्ठका पर चढ़नेको भी सोपान बना है। वहाँ ८ हस्त उच्च मण्डपं छोड़ने से एक कुण्ड मिलता है। वह भी अमन्तदेवको मूर्ति देख-पड़ती है। पहाड़ तोड़ कर बनाया गया है। इसका नाम स्वर्गा वहां दूसगे भी देखनेको बहुत चीजें हैं। उनमें रोहणकुण्ड है। उसके दक्षिण पाल पर्वतके चण्डीभवन, शिवक्षेत्र, रविक्षेत्र, मातङ्गवापिका, कोणमें प्रकाण्ड कालभैरवको मूर्ति है। वह कुण्डके नारायणकुण्ड, चन्द्र स्थान और सौमित्रक्षेव प्रसिद्ध है। जम्न पर खड़ी है। मूर्ति प्राय: १६ इस्त उच्च और पर्वतके अग्निकोणमें प्रद्यायि श्रीरामका चरण- ११ हस्त प्रशस्त है। नरमुण्डको माला गदेशमें चित्र बना है। दोदुल्यमान है। सपैक कुण्डत हैं। इस्तमें सर्पक "अनिकोपी गिरिव रामघरपदयम्" (कामभरमाहात्मा ४१.) धलय पड़े हैं। गले में सर्पका कार है। अष्टादश इस्तमें कालिदाम (सं० पु.) काल्या. दासः, संज्ञायं इस्खः । अष्टादश अस्त्र हैं। उन्त भयानक मूर्तिक पाख, जल भारतकै प्रति प्रसिद्ध महाकवि। लोगोंको विश्वास पर कालीकी एक मूर्ति खड़ी है। जन पर उक्त है कि विक्रमादित्यको सभाके नवरत्नमें कालिदास भो पर्वतके अभ्यन्तरमै उन दोनों मूर्तियों को देखने से एकरन रहे। उसके सम्बन्धपर नाना स्थानों में नामा मनमै युगपत् भक्ति और भयका सन्चार होता है। प्रकार प्रवाट प्रचलित है। उनमें केवल एक प्रवाद उक्त मूर्तिके प्राग ही दूसरी गुहा है। वहां जाना हम नीचे लिग्नेगे दुःसाध्य है। पहले उक्त मूर्तिके निम्नभागमें एक हार किसी विदुषी कन्याने विद्यावन्तसे, बडु पण्डितों- था। उससे सिगुहा में लोग जाते थे। उस स्थानसे को इस प्रतिमा की थी, जिस पण्डितसे इम - किसी सुरंगकी राइ देशीय राज्यके भीतर पहुंचते | शास्त्रार्धमें हार जायेंगी, उसीको अपना थे। अगरेज राजपुरुषोंने यह राह बन्द कर दी है। बनायेंगी।' उनके पिता प्रतिज्ञाको सुन एक एक कर टुगेको उत्तरदिक् प्राकारसे बाहर पर्वतके मध्यदेश में बहु पण्डित लाये थे। किन्तु कोई कन्याको पराजय १. हस्त दी और ६ हस्त उच्च एक क्षुद्र खण्डगिरि कर न सका। इस प्रकार बार बार पण्डित-पात्रका है। उसमें भी लिङ्गमूर्ति वतमान है। उसका नाम बालकाण्डेखर है। इसके पात्र में एक भारवाही al. Asiatic Society ol Bengal, Vol. XLVII. 1879 pt. मिथिलाकै प्रबादाइसार कालिदास मिथिलावासी थे. (Jour- मूर्ति है। वह मार लिये चली जाती है। वहंगीको I... 83.) इसी प्रकार दक्षिणदेशमैं भी कई प्रवाद है। (See दोनों पोर दो कलमी गङ्गाजल है। उता भारवाहकके Indian Antigrary. 1878.) नाना स्थाोक प्रवाद पढ़नेसे माल म पड़ता है-जहां किसी समय विवाद पणित रह वर्ष लोग महाकवि • बालभरमाक्षमा सक्त एका नाम वर्गधापी विखा । कालिदासको स्वदेगीय चौर एक चामवासी कनेमें शुण्ठित गये। मनवाया नरः सायाई वापत्तदा भवेत्।(मए२२५) रंगपुर में भी ऐमा हौ प्रमाद चलता है। (Martin*s Eastern India, III. p.548.) IV. 148 यषा- "नीलकण्ठसमापे तु स्वर्ग वाप्या, समात्रयः । Vol.