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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५८७

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है. कालिदास अनुसन्धान लगा उनके पिता बहुत विरक्त हो गये । अर्थात् उन्हें कुछ खास तौर पर कहना है । स्त्रीने फिर सुतरां किसी गौमुखके साथ उस कन्याका विवाह पूछा-'क्या विशेष कथन हैं। कालिदासने हारदेश पर करना एकान्त अभिप्रेत ठहरा। फिर वह चतुर्दिक | खड़े हो खड़े अस्ति, कवित् और वागविशेषः तीनों वैसे मूर्खका ढंढ़ने लगे। किसी स्थान पर उन्होंने देखा पदौमसे एक एक पद पहले दोन्त तीन काव्य स्त्रीको एक व्यक्ति वृक्षमें प्रारोहण कर जिस शाखा पर स्वयं सुना दिये। 'अस्ति' पदके अनुसार 'प्रत्युत्तरस्या बैठा, उसीका मूलदेश काटता था। वह उससे बहुत दिशि देवतात्मा' प्रथम झोकसे प्रारम्भ कर सप्तदश सर्ग सन्तुष्ट हुये और सोच गये,-'जो यह भी विवेचना कुमारसम्भव, 'कश्चित्' पदके अनुसार 'कचित् कान्ता. नहीं कर सकता कि डाल कट जानेसे वह भी उसके विरहगुरुणा खाधिकारप्रमत्तः' प्रथम लोकसे प्रारम्भ साथ गिर पड़ेगा, उससे अधिक मूर्ख जगत्में कहां कर मेघदूत और 'वाग,विशेषः' पदका वाक् शब्द ग्रहण मिलेगा। अतएव यह उपयुक्त पात्र है।' सुतरां उन्होंने पूर्वक 'वागर्थाविव सम्म तौ' प्रथम लोकसे प्रारम्भ कर उसे कन्याके निकट ले जा कर उपस्थित किया। रघुवंश उन्होंने प्रणयन किया। उन्होंने रघुवंश पौर. कान्याने उससे मौखिक प्रश्न न कर एक अङ्गलिका कुमारसम्भव दो महाकाव्य, मेघदूत नाम खण्ड काव्य, संकेत दिखाया। वरने सम्भवतः उसको अपेक्षा अभिज्ञान शकुन्तला, विक्रमावशी, मालविकाग्निमिव वीरता प्रदर्शन करनेकी दो अङ्गलि दिखा दी। तीन नाटक और शृङ्गारतिलक, श्रुतवोध, पुष्यवाण- कन्याने फिर तीन अङ्गुलि देखायौं । उसके उत्तर में विलास, ऋतुसंहार प्रभृति ग्रन्य बनाये हैं। वरने भी चार अङ्गलि देखायो थौं। तब कन्याने उसे अाजकल विशेष प्रमाण हारा प्रतिपन्न हुवा है- पांच अङ्गलि देखायौं। वरने उन्हें प्रहारका सङ्केत विक्रमादित्यके सभास्थ जिन नवरत्नों का नामाल्लेख समझ कन्याको मुष्टिका संकेत किया था। वरका मिलता, वह सब एक ही समयमें न रहे। शिलालिपि उद्देश्य कुछ भी हो सकता था। किन्तु कन्याने वह और प्राचीन ग्रन्यसे भी एकाधिक विक्रमादित्य का नाम सहत देख अपनेको पराजित मान लिया फिर अति निकला है। किन्तु यह निश्चय नही-कानसे प्रानन्दसे पिताने उसका कन्या सौंप दी। विवाहके विक्रमादित्यको सभामें कालिदास थे! फिर छत पीछे वासर-सहमें स्वामी और स्त्रीने पालाप पारम्भ ग्रन्थोंका छन्दवन्धन, भाषा और कवितानपुण्य देखते किया। स्वामीके मुखसे ग्राम्य शब्द सुन वह चमत्- भी प्रथम छह ग्रन्योंको छोड़ अपर पुस्तक महाकवि कृत हुयौं। फिर उन्होंने उसे अत्यन्त तिरस्कार के कालिदासके हस्तप्रसूत मालम नहीं पड़ते। इनही साथ सहसे निकाला था। मूर्ख कालिदास स्त्रीके कारणों से केवल प्रवाद पर निर्भर कर कान्तिदासकी निकट उस प्रकार तिरस्कृत हो प्राणत्यागको इच्छासे | जीवनी लिखी जा नहीं सकती। सरखतीकुण्ड में कूद पड़े। किन्तु उनका प्राण छुटा कालिदासको नीवनी लिखना और अन्धकार न था। मूर्ख कालिदास कावि कालिदास बन गये। समुद्र में कूद पड़ना एक बात है। उनके सम्बन्ध में सरस्वतीकुण्डके माहात्म्य अनुसार अवगाहन मात्रसे. विभिन्न लोगोंका विभिन्न मत मिलता है। ही सरस्वतीने समीपस्थ हो कर दिया था। कालिदास बल्लालविरचित 'भोजप्रबन्धक प्रमाणानुसार वर पाते ही फिर स्त्रीके निकट ना पहुंचे। उन्होंने कालिदास उन्नयिनीनिवासी भोजराजके सभासद थे। सोको सहका अगल बन्द करते देख द्वार खोलनेके उक्त भोजराजका राजत्वकास ११. ई ठहरा है। लिये अनुरोध किया। स्त्री स्वर सुनते ही स्वामीका (Journal Asiatique, Sept. 1844. p. 250.) प्रत्यागमन समझ गयी थी। सुतरां उसने सहज ही भोजप्रबन्धमें कालिदासके समसामयिक कर बारन खोल प्रत्यागमनका कारण पूछा। कालिदासने पहितोंका नाम मिलता है। यथा-कपूर, कसित उस पर उत्तर दिया,-"प्रति कचित् वाग्विशेषः . कामदेव, कोकिस; गापासटेव, तारेन्द्र, दामादर, .