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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५९१

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कालिदास साहाय्य लिया है। अथवा उन्होंने ग्रीक ग्रन्थ पढ़ होराशास्त्र लिखा होगा। परन्तु यह ठीक नहीं जंचता प्रथमतः देखना चाहिये कालिदास प्रभृतिने 'यवन' शब्दमें किस देशके लोगों या किस जातिका उल्लेख किया है। कालिदासने रघुवंशम लिखा है,- “पारसीकाक्षतो नेतु प्रसस्थ स्थलयम मा । यवनीमुखपद्मामा से मधुमदं न सः॥ स'ग्रामम्तमुलम्तस्य पायान्य रवसाधर्मः। शाकलितविझे यातियो धे रजस्यभूत ॥ ६ ॥ भल्लापवनितस्तेषां शिरोमिः मय लमहीम् । अपनीसशिरस्त्रार्या में पास्त' शरणं ययुः ॥६॥" (रघु) पारसोकीको जय करनेके लिये स्थलपथसे । वह यवनियोंके वदनकमनका मदराग सह न सके। फिर उन्हीं पखारोही (पारसौके) यवनोंके। साथ उनका घोरतर युद्ध हुवा । धूलिसे युद्धक्षेत्र भर गया था। उस समय धनु:के रहार शब्दसे प्रति- योहा अनुमित होने लगे । महावीर रघुने यवनांक श्मन विराजित शिर भल्लास्त्रसे काट रणस्थल समा- छन किया था। उस समय अवशिष्ट यवन मस्ये से टोपी उतार उनके शरणापन्न हुये। कालिदासने पारसौकोंको यधन और उनकी रस- णियों को यवनी लिखा है। रघुवंश व्यतीत महाभारत- में भी पारस्यके पाववर्ती वाहीकको रमणियोंको मद्यपानासना कहा गया है । यास्कके निरुक्त पाठसे समझ पड़ता है कि वान्त्रीक देयके पूर्ववर्ती प्राचीन कम्बोजके लोग पहले संस्कृत भाषामें बातचीत करते थे । सकल पुराणों के मतसे-भारतको पश्चिम सीमा 'यवन' है। फिर महाभारतमें रोम नामक जनपद भारतके अन्तर्गत ठहराया गया है। (भारत भीम, ८५०) ऋगवेदमें रूम नामक किसी व्यक्तिका उल्लेख है। अनेक लोग उसमे रोमको उत्पत्ति कल्पना करते हैं। सुतरां रोमकाचार्य और यवनाचार्य सुदूर ग्रीम वा वर्तमान रोमवासी समझ नहीं पड़ते। पुरातन पारसीक यवनोंको बहुत प्राचीन नन्द भाषा (वैदिक) छन्दम भाषाका रूपान्तर और अप- भ्रंश है। नन्द देखो। प्राचीन अवस्तात. यश प्रभृति ग्रंथ, पढ़नसे कुछ पाभास मिलता है कि प्राचीन पारसोकों- को होराशास्त्रके मूल तत्त्वका जान था। पारमिक देखो। सूर्य सिद्धान्तके मतानुसार सूर्यांशमम्भून पसुर मयने ज्योतिषशास्त्र प्रचार किया है। पाथात्व पण्डितोंने उसे ग्रीक ज्योतिषो तुरमय ( Ptolemaios ) माना है।* किन्तु इमारी विवेचनामें पारसिक अवस्ता गास्त्रोक्त ज्योति प्रकाशक 'परमपद संस्कृत 'असुरमय' समझ पड़ते हैं। प्रसङ्गत नहीं मालूम होता कि असुरमयके प्रथम ज्योतिःशास्त्रका उद्वारक होनसे भारतवासियोंने कोई कोई विषय प्राचीन पारसिकों अथवा उनके निकटवर्ती यवनोंसे सीख लिया होगा। सुतरां ग्रीक होगशास्त्र के प्रमाणसे कालिदासको चतुर्थ शताब्दका परवर्ती व्यक्ति मान नहीं सकते। कालिदासने शकुन्तलामें शरासन और वनपुष्प- मालाधारिणी यवनियों को मृगयाप्रिय हिन्दूराजावोंको सहचारिणी लिया है। यथा- • यवनाचार्य उन सकल गन्धोका यदि योकभाषामें अनुवाद होता, तो गोकभाषामैं उनका कोई मूल अन्य देख पड़ता। किन्तु पाज सम किसीका मूल अन्य नहीं मिला। + "पायात्य: यवन : मह" इति मल्लिनाथ । 1 यूरोपीय रोम नगपद रोमुटम् ( Romulus ) भामसे वा । (०५२ ख. पू.) रोमुलस ट्य-युद्धसे प्रत्यागत इमियससे बहुपुरुष पध- सन थे। किन्तु महाभारतमें रोनक पीर रोमन् जनपदका उल्लेख रहने से वह मिन ननपद ननिं पड़ता है।

  • Sec Llicts of Asoka in Inscriptionum Indicaram,

Vol. I. and Weber's Sanskrit Literature, p. 253. + सस्कृत असुर, पामिक 'पहर और मय “मषद" से मिलता है। फिर जिम प्रकार सिन्टुसे "हेन्दु' और नापसे 'हप्त' पनता है, मौप्रकार सक त सौरमै छोर पनसा है। प्राचीन पारसिक मूर्य को पुगि मानते थे। किन्तु योकोंने शेग गाम्नमें से कोणि उरारा मी प्रकार 'हीरा' मन्ट ग्रीक सापामें तीनि हो गया। (See English Cyclo- pædia-Science, Vol. I. P. 657. ) + कालिदासकै क्रमारममनमैं 'नामिन' शब्दका नहख है। बहुतसे लोग उक्त गप्दको गौक होराशास्त्रोक्त "डिय:मिटे,म्' या डियानि नका चप- मंच समझने । किन्तु पीक होराशास्त्र सम होने पौर ईसाई अपजने से पर शताब्द पूर्व भीमर प्रमतिको बनाये गन्यमें वह शब्द देख पड़ता है। सुतर्ग उम शब्द पर निर्भर कर कालिदासको वतीय गताप्दशा परवतों व्यक्ति का नाड़ी' मुकते।

  • किमी दूरे मम्क त नाटक वा काव्यमें हिन्दू राजाको सहचारियो

धनुर्वावधारिणी ययगियों को भा चिय हित महो' वा । तमारा मो एपरि उक्त मत कुछ कक-समर्षित होता है।