कालिदास असम्भव जा-उपनिवेश किया था। अतएव यह जाना सम्भवपर नहीं। रामदास ई. षोड़श शताब्द- के लोग थे । रामदास देखो। उनके पूर्ववर्ती कुलनाथने नहीं मालूम पड़ता कि हिन्दुवोंके यवदीप जानसे पहले कालिदास विद्यमान थे। अपने विरचित रावणवधको टीकाको सूचनामें ‘किसी किसी पाश्चात्य और देशीय पुराविदके मतमें लिखा है,-' कालिदासके ग्रन्थमें होगशास्त्रीय कथा और संत "श्रौषन्द्रचडचरणाम् रुई प्रणम्य, देवी प्रसाद चं गिरं कुलनाथनामा । व्याखवायते प्रवरसेनभूपस्य सूक्त सन्दे निर्भरदशास्यवधप्रवन्धम् ।" शास्त्रके 'ग्रीक शब्द'का उल्लेख है । ग्रोकोंका होरा- इस स्थानसें कुलनाथने राजा प्रवरसमको ही शास्त्र ई• टतीय शताब्दको सम्पूर्ण हुवा। अतएव 'सेतुबन्ध' रचयिता लिखा है। उक्त शताव्द के पीछे भारतवासियोने सना शास्त्र ग्रहण भौचित्यविचारचर्चा, सूक्तिकर्णामृत प्रभृति ग्रन्थ किया होगा। पढनेसे समझते हैं कि प्रवरसेन एक प्रसिद्ध कवि थे। जिस शास्त्रमें जातक, यात्रिक पौर विवाह- हर्षचरितके दो लोक मनोनिवेशपूर्वक पालोचना लग्नादि निरूपित हुवा, वराहमिहिरने उसको ही करनेसे बोध होता कि वाणभट्टसे पूर्व राजा प्रवरसेन 'होराशास्त्र' कहा है। प्राचीन ग्रन्यमें 'होरा' शब्द 'सेतुकाव्य' और कालिदामने काष्य तथा नाटककी न देख पड़ते भी उक्त शास्त्र का प्रतिपाद्य कितना रचनासे प्रसिद्धि पायी थी। हो मूल विषय रामायण, महाभारतादि प्रति- अब स्थिर हो गया कि मारगुप्त और कालिदास प्राचीन अन्य में विकृत है। मोतिष, हीरा, जातक प्रमति विभित्र व्यक्ति थे। कालिदासने सेतुबन्ध बनाया न शब्द देखो। सुतरा यह अस्वीकार किया जा. नहीं था। इस पछमें भी कोई विशेष प्रमाण नहीं कि वह सकता कि होराशास्त्रका प्रतिपाद्य मूल तत्व प्रवरसेन अथवा हविक्रमादित्यके समकालीन थे । ग्रीक होराशास्त्र बननेसे बहुत पहले भारतवासी प्रवरसन र विक्रमादित्य देखी। समझते थे। फिर कालिदास किस समय विद्यमान थे। वराहमिहिरने यवनाचार्यो के ग्रन्यसे होराशास्त्रीय यापमह, वाकपति, खण्डनखण्डखाद्यप्रणेता श्रीहर्ष, कितना ही विषय संग्रह किया था। वराहमिहिर देखो। क्षेमेन्द्र, वामन, जयदेव प्रभृति पनिक प्राचीन कवियों ने इमें यवनाचार्य वा यवनेश्वरप्रणीत 'अष्टकवर्गविन्दु- कालिदासका नामोल्लेख किया है । ५५६ शकको फल' 'ताजिक शास्त्र', 'नक्षत्रचूडामणि', 'मौनराज- प्रदत्त चौलुक्य राज पुलिकेशीके ताम्रशासनमें लातक', 'यवनसार', 'यवनहोरा', 'रमलामृत', 'लग्न- कालिदास और भारविका नाम मिलता है,- चन्द्रिका', 'वृहयवनजातक', 'स्त्रीजातक' प्रभृति कई "यमायोजितवैश्मस्थिरमर्थ विधी विकिमा जिन वेश्म । संस्कृत ग्रन्थ मिले हैं। वराहमिहिरने (हनातकमें.) सविनयता रविकौनि: कवितावितकालिदासमारविकोतिः।" भट्टोत्पत्त, केशवार्क एवं मार्तण्डचिन्तामणिटीकामें सुप्रसिद्ध कुमारिनभने तत्कत तन्नवार्तिकमें कालिदासके शकुन्तलावर्णित "सतां हि सन्देहपदेषु" विश्वनाथने यवनाचार्य संस्कृत वचन उहत किये है। एतद्भिन्न 'रोमकसिद्धान्त' नामक ज्योतिःणास्त्र वचनको उद्दस किया है। एतदिन भोटदेशीय "तेंगुर प्रन्थमें कालिदासका संस्कृत भाषामें रचित प्राप्त होता । थाकल्य- 'नाम और यव तथा वालि होपकी कविभाषामें रघुवंश संहिता, हायनरत्न, ज्ञानभास्कर प्रभृति ग्रन्यमें भार तथा कुमारसम्भवका अनुवाद देख पड़ता है। पाश्चात्य वराहमिहिर प्रभृति ज्योतिर्विदोके बनाये पुस्तक में पगिढतोंके मतमें हिन्दुवोंने ५०० ई० को यवदीप रोमकाचार्य के संस्कृत वचन उहत हुये हैं। उपरि उक्त प्रमाण द्वारा बोध होता भारतवर्षीय . सेतुबन्धका अपर नाम रावावध वा दमास्यवधप्रबन्ध है। ज्योतिर्विदोंने होराशास्त्र के किसी किसी विषयमें + Weber's Sanskrit Literature, p. 208. संस्कृत भाषामें लिखित यवन एवं रोमकाचायके. मन्यसे Vol. IV. 149
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५९०
दिखावट