कालौघाट . . गोपवम्दादिपुर' स साडि मपनिकम । वानीलतन्त्र पौर शिवाचनतन्त्र में उक्त स्थान कालो- कालिदम्याः समीपे च श गालदाहादिक नृप ॥६ 'घमामसे उता हुवा है । प्रवादानुसार वहां सतीका: पोठमान्तातन्त्रके मतानुसार वहां भागीरथोके तोर . भङ्ग गिरा था। इसी कारण बहु दिनसे वह पीठस्थानके सतीदेवीके शरीरसे वामहस्त को अङ्ग लि गिरी थी। नामपर प्रसिद्ध है। भविष्य ब्रह्मखण्ड में लिखा है- कालीदेवीके प्रसादसे किलकिलादेश पासी घिरकास "गोविन्दपुरप्रान्ते च कापी सुर मौवटे ।" धन धान्यवान् रहेंगे । पाजकल भागीरथीके तीर पहले गणाही परं कालीदेवी विराजतो थौं। पुरा. यशोरराज प्रतापादित्य का गड्डावासअल है। गोविन्द- काल को सागरयात्री हिन्दू चणिक उम्र के निकट घाट पुरादि ग्राम, भपक्षी, और कालीदेवीके निकटस्थ ‘पर उतर कालीपूजा करते थे । उस स नय से उस स्थान है। ऋगालदाह (सियालदा) कायस्थों के शासशमें है। कालीघाटके नामसे विख्यात हुवा है। निगम कल्पको बोध होता कि उस समय उता सकल स्थान यथोर. पोठमाला, कालीघाटको सोमा इस प्रकार निर्दिष्ट है- राज प्रतापादित्यके अधिकारभुत थे। कलकत्ता देखो। "दक्षिणेश्वरमारण्य यापञ्च बलापुरी।। प्रवाद है-प्रतापादित्यके चचा वसन्तराय कालीदेवीके धनु राकारपे वक्ष योगमयसखालम्॥ तत्कालीन पुत्रारी भुवनेश्वर ब्रह्मचारीके शिष्य थे। चिको विगुणाकार प्रभविषु शिवात्मकम् । उन्हींके यवसे एक क्षुद्र मन्दिर निर्मित हुवा। मध्येच कालिकादेवी महाकाली प्रचौर्मिता। मकुलेशः मेरयो यन वव गमा विरानिवा।। उसी समयसे कालीघाटका गुद्यापीठ साधारण के कायौवकालो वममैदीऽस्ति महवर।" समक्ष देख पड़ा। उस विषय कवि कप का चण्डी- दक्षिणेवरसे बहुता पर्यन्त :दो योजन-परिमित मङ्गल और. तत्पूर्ववर्मी अकरके समसामयिक 'धनुराकार स्थान कालोचे व है, इसके मय एक कोस त्रिवेणीनिवासी-माधवाचार्य का चण्डीमाहात्मा पढ़नेसे त्रिकोणाकार स्थानमें त्रिगुणात्मक ब्रह्मा, विष्णु, और विदित होता है। महेम्बर एवं मध्यस्थल में महाकाली नास्त्री काली मालूम पड़ता है कि यगोरवाले कायस्थ राजावों के देवी हैं। समय वह स्थान देवोत्तर वा ब्रह्मोत्तर स्वरूप दिया पहले काखीघाटको चारो ओर घना जङ्गन था। गया था। कारण उनके परवर्ती काससे उक्त स्थान लोगोंको वसती न रही। उसी बनके मध्य काली देवी'| अपुत्रक भुवनेश्वरके दौहित्रवंशीय हान्नदार बराबर सामान्य पर्णकुटीरमें अबस्थान करती थी, कापालिक देवोत्तरस्वरूप भोग करते जाते हैं। कालीघाट का और संन्यासी उन्हें पूजते थे। प्रथम कालोदेवी गुप्त वर्तमान कालीमन्दिर बडिमावाले सावर्ण चौधरी भावसे रहती थौं । इसीसे वृहन्नीलतन्त्रमें बह गुप्तकाची वंशीय सन्तोषरायके त्र्यसे १८०० ई० (.उनके मरने नामसे उता हुयी है। ५।६ वर्ष पोहे ) को बना था। खुष्टीय षोड़श शताब्दशो-लिखिस ( मानसिंह के कालीघाटका नकुलेश्वर लिङ्ग प्रसिद्ध है । निगम- चलान जानसे पहले) कविरामके दिग्विजयपकायम कल्प प्रकृति दो-एक आधुनिक तवों में उसका उल्लेप कहा- मिलता है। पहले अति सामान्य कुटोरमें नकुलेखा “पौठमालाबन्द्रग्रन्ये सतीदेव्याः शरीरवः । लिङ्ग स्थापित था। १८५४ ई० को सारासिंह नामक वामभुना विपाते नावो मागौरयोनट Icei किसी पक्षाची वणिकने प्रस्तरमय मठ निर्माण करा कालोदिन्याः प्रसादेन किलकिलादेशवासिमः ।। द्रविष प्रिया नित्य भाविताविरकालतः ॥ १०॥ दिया। प्रवाशदिव्यभूपस्य यथौरममिपस्य च । कालीघाट में काली एवं नकुलेखरको छोड़ श्याम- गावामश्थली राजन् दागों वर्तते । राय तथा गोविन्दजीको प्रतिमूर्ति भी सामान्य समझना भावस्थामा शासनच यतते पंधुना नृपा न चाहिये। वह भूर्ति पहले गोविन्दपुरमें रही।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६००
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