पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६११

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1 कर नो वाक्य वच्छ, ६१४ काव्यशास्त-काश हे प्रिये ! तुम्हारे चक्षु की कान्तिके मदृश कान्तियुन | काव्यापत्ति (सं० स्त्री० ) पर्यापत्ति नामक अन्नद्वार। पद्म जलमग्न हुवा है । तुम्हारे मुखके तुल्य चन्द्र मेघ काश (सं० पु० ली० ) काशते दीप्यते, काग-पचाद्यन् हारा पावरित हुवा है एवं तुम्हारे गमनके अनुकारी १णविशेष, कास I (Saccharum spontaueum) गतिविशिष्ट राजहंस भी देशत्यागी हुये हैं। सुतरी उसका मस्कृत पर्याय-इक्षुगन्धा, पोटगन्च, काम, कागी, वस्तु विशेषमें तुम्हारा सादृश्य देख हम काशा, वायमेक्षु, कागडे क्षु, अमरपुष्पक, कामक, वनहा- सन्तुष्ट होंगे, विधाता उसे भी सह नहीं सकते । सक इक्ष्वारि, शाकेक्षु, इक्षुर, इक्षुशागड़, गारद, यिनपु. इस स्थलपर शेष वाक्य के प्रतिपूर्व तीनों पक, नादेय, दर्भपत्र, लेखन, काण्डकाण्डक, और कच्छ- हेतु हुये हैं। इसीसे वह काव्यन्निन पचवार है। नकारक है। भावप्रकाशके मतमें काय मधुर एवं नित. पदार्थगत कावालिङ्ग इस प्रकार होता है, रस, पाकमें मधुर, शीतन्न पौर मेदकारक है। उससे मूत्र- "वधानिरानिनिघतध लोपटरूपद्विग्नाम । अश्मरी, दाह, रतादीष, क्षय और पित्तसे उत्पन्द्र मध मिरमा गगां मुरिमारमिया हर" रोग नष्ट हो जाता है। राजनिघण्ट, और शब्दाबावन्नी कोई किसी राजाको लक्ष्य भर कहता है, हे राजन् ! ने उसे रुचि, प्ति, बन्न एवं शुक्रकारक और यान्ति तुम्हारे घोटकसमूहकत क उत्थित धून्निराशि द्वारा तथा कफनाशक एवं कण्ठकाटुकारी निखा है। गङ्गा पहिल हो गयी हैं। इसीसे महादेव उन्हें अधिक हिन्दुस्थान में कामको काम, कगर, कोम, कुम मार वहनके भयसे मस्तकपर धारण नहीं करते। या काम, वङ्गान्नमें खागरा, युक्तप्रदेशमें कामी, प्रवधमें यहां पराधंश्लोकके प्रति पूर्वार्ध श्लोशका पद कारण रर, कुमायम झांभ, पंजाबमें मरकर, राजपूतानामें है। इसीसे वह भी कावान्तिक अनवार होता है। काशी, सिन्धु में ग्वान, मध्यप्रदेशमें पदर, मारवाइमें कायाशास्त्र (सं० ली.) काव्यं शास्त्रमिव उपदेशकत्वात् फगर, तेलगु, रेझुगद्दि, और ब्रह्मने येतकियाकिन कावारूप शास्त्र, कावासे बहुविध हितोपदेश मिन्नता कहते हैं। वह मोटी और वारही महीने रहनेवली है। इसीसे काधको भी शास्त्र कहा करते हैं, घास है । काशकी नहें दूरतक रंगते चली जाती हैं। "काव्यशास्त्रविनोदेन कानो गच्छति धीमताम।" (मनट) भारतमें वह बहुत मिलता है । फिर हिमालय में काश कावासुधा (सं० स्त्री०) कावा सुधा अमृतमिव, उप ६००० फीट ऊपर तक पाया जाता है । भूमि की प्रकृति- मि. काव्यरूप अमृत । कावध श्रवणसुखकर होता के अनुसार उसकी उचनामें भी भेद पड़ता है। भोगी है। इसीसे उसकी तुलना अमृतसे करते हैं। नीची जमीन काशका घर है। वहां उसकी फलती काव्यहास्य (सं.ली. ) काव्येन काव्यश्रवणेन दर्श हुयो डालियां १२ फीट तक बढ़ती हैं । वर्षा ऋतु नेन वा हास्यं यत्र, बहुव्री० । प्रहसन, नकन्न । अधि. समाप्त होते ही काश फनता है । हिन्दीके महाकवि कांश स्थलपर हास्यरसका वर्णन रहनेसे उसे सुन या तुलसीदासजीने लिखा है,- उसका अभिनय देख अतिरिक्त हास्य करना पड़ता "फी कार मकल महि छायो । अनु वर्षा ऋतु प्रकट बुढायो।" प्रहसन देती। काशको जड़ बहुत सुदृढ़ नगती है । उमे खेतोंसे काव्या (सं० स्त्री०) कव स्तुतिगाने बाहुनकात् ण्यत् निकालना कुछ सरन्त नहीं। कहते हैं कुछ दिनों में टाप् । १ बुद्धि, अक्ल । २ पूतना। वह मायाविनी विविध वह पाप ही पाप नष्ट हो जाता है। काश अधिकतर छानी छप्परक काम पाता है । स्तुतिवाक्य एवं वेशविन्यास द्वारा नारियोंको मग्ध कर उनसे शिशुपहरणपूर्वक मार डालती थी। अन्तको उससे रस्सियां और चटाइयां भी तैयार होती हैं। छष्यने उसका विनाश साधन किया। पूतना देखो काशको मैंस बड़े चावमै खाती है । नया काग हाथियों को भी खिलाया जाता है। अंग निमें वह काव्यायन (सं० पु०) काव्यस्य शुक्राचार्यस्य गोत्रापत्यम् काव्य फक् । शुक्राचार्यके पुत्र प्रभृति वंशंधर । बहुत होता है । रोहतक जिले में घोड़ोंको काग