पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काश करता है खिताते हैं । वहां ऊंट और बकरै भो उससे सन्तुष्ट रहते हैं। किन्तु हिन्दुस्थामका काय इसना कडा होता है कि उसे पशु कभी नहीं खाता । काश प्रति पवित्र वृण है। (पु.) केन जलेन कफात्मकेन इत्याशयः पश्यते व्याप्यते ऽत्र, क-पश् अधिकरणे घञ् २ चत, जखम, घाव । काशयति शब्दं करोति, कश-णिच् पचायच् । ३ रोगविशेष, खांसीको वीमारी। "ध मोपघातासतम्तय व व्यायामरुपाननिषे वयच । विमान ताहि भोजनस्त्र वेगावरोधात चवयोस्तयं च ॥” ( सुचत ) मुख नासिकादि हारा अतिरिक्ष धूम वा धून्नि प्रभृतिके प्रवेश, अपरिपक्क रसके कई गमन, व्यायाम, रूक्ष ट्रव्यभोजन, हुस भोजनादि दोषमें मुमद्रव्यक विषय पर गमन, मन्नमूत्रादिके वेगधारण पौर छिक्का वैगरोधादि सकक्ष कारगासे वायु कुपित हो अन्यान्य समुदाय दोष कुपित कर देता है। उससे काश विशेषकी उत्पत्ति होती है । "पूर्वकप मवेचेषां ग कपूर्णगलास्थता । कई काय भोग्यानामवरोधय नायते ।" (चरक चि०) काश रोग उत्पन्न होनेमे पहले वोध होता मानी गल और मुखके मध्य कोई शूक (अनाजका रेशा) परिपूर्ण है । सुतरां गले में सरसर होने लगता है। फिर भोजन करते समय ऐसी यातना मालूम पड़ती मानी भुक्तद्रव्य घटका हुवा है । "चध: प्रविभवो यापुर्घ मौत समाश्चितः । उदानभायमापनः कई सशस्तषीरसि। पावि गिरसः खानि सर्वाणि प्रतिपूरयन् । पामश्चवाधिपन देई नुमन्ये तथाषिो। नेवाष्टमर पानिन्ध स्तम्भन्तरलतः । शु हो वा सकफी वापि कामनात कास उच्यते । प्रतिषातवियप सस्य वायोः सहसः। वेदनाशब्ददेशेष्यं कासानासपनायते।" (चरक) निदान समूहद्वारा वायु अघोदिक्पा न सकनेसे जवं दिक गमन करता है । सुतरां उदानता पाकर वह कण्ठ और वक्षस्थलमें घासत हो जाता है । फिर वायु ऊर्ध्व देहस्य मुख, नासिका, कर्ण और चक्षु रूप छिद्र समूहमें घुस सकत छिट्र पूर्ण सौसे वायु मुखं हारसे विविध शब्दके साथ निर्गत होता है । उस समय .रोगीका देह, हनुहय, मन्याहय, पृष्ठदेश, वक्षस्थन, पाच- हय एवं नेत्रदय सङ्कुचित और हस्त पदादि पाक्षिप्त हो जाता है। कारीगमें कभी केवल वायुमान और कमी कफादि दोष भी उसके साथ निकलता है । वेगवान् वायु विविध भावमें प्रतिहत होनसे नानाविध शब्द और वेदना हुवा करती है । काशरीग कई प्रकारका है-वातज, पित्तज, नेमज, सन्निपातज, चतज और क्षयज। "चशीतकषायामपमिक्षानशन स्त्रियः । गधारणमायासी बातकामप्रवर्तकाः। इनपाचार गिरशूलस्वरमदकरो भशम् । अकीर करण्यवस्स इटलोमः प्रताम्यतः । निर्घोषनाचामास्यदौर्बल्योममोडलम् । शुकः कासः कफ शुक कच्छ मुक्त्वात्पता बने । वि धान्नु लवणोपीय भुक्तपीतः प्रथाम्यति । जचं वातस्य जोपीने वेगवान् मारुती भवेत् ॥ (चरक) रुक्ष, शीतल एवं कषाय द्रव्य भोजन, पल्पपरिमाण भोजन, उपवास, अतिरिक्त स्त्रीसहवास, मलमूत्रा- दिके वेगधारण और परिश्रमजनक कार्यसमूह हारा वायु कुपितं होता है । उससे अन्यान्य दोष भी कुपित हो वातज काथ उत्पादन करते हैं। इस काथमें हृदय, पाच देश, वक्षस्थान और मस्तकमे वेदना होती है। स्वरभेद पड़ता है। बार बार वक्षः, कण्ठ और मुख सूख जाता है । रोमहर्ष होता है । मूर्छा प्राती है । कासका अत्यन्त शब्द उठता है। शरीरको ग्लानि लगती है । मुख शुष्क रहता है। दुर्वलता आती है । क्षोभ बढ़ता है। मोह पड़ता है। फिर शुष्क कास प्रभृतिका लक्षण झलकता है। खांसते खांसते अति अल्प परिमाणमें शुष्क कफ निकलनेसे कुछ उपशम समझ पड़ता है। किन्तु स्निग्ध ट्रव्य, जल, लवण और उष्ण द्रव्य खानेसे उसका प्रवत उपशम होता है । आहार जीर्ण : होनेसे वातज कायका वेग बहुत बढ़ जाता है। "कटुकोपविददायाम्नचारायामतिसेवनम् । पिसकासकर कौधः सन्सापयाधिसूर्यनः ।