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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६३३

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कायौ "संसविष्यामह राजन्नसुरावा स्ववेमयः ॥२०॥ था। भुवनेश्वर वाराणसीके अनुकरण पर बना है। वयं यतस्वविषये सुरावासोऽपि दुर्लभः।" एकाय देखो। सुतरां यह अवश्य हो स्वीकार करना पड़ेगा असुर यह कह कर उनका ( राजा रिपुनय दिवो. कि उससे भी पहले काशेम हिन्दूधर्मका पुनरुत्यान दासका) स्तव करते थे, 'पापके राज्य में देव लोग रह हुश्रा। नहीं सकते। सुतरां हम ख स्व विभवके अनुसार आप पतञ्जलिके महाभाष्यमें वाराणासोका उल्लेख है की सेवा करेंगे। और इसका भी प्रमाण मिन्तता कि उस समय वहां उस लोकसे याही अनुमित होता कि असुर अर्थात् शिवोपासना भी प्रचलित थी। पतवन्ति देवी । सम्भवत: वौह- देवषिषी सर्वदा रिपुचयके निकट रहते और देव राज प्रशोकके मरने पर और महाभाष्य बनते समय अर्थात् देवभक्त ब्राह्मणादि उनके राज्यमें कम देख वाराणसोमें हिन्दूधर्म फिर बढ़ने लगा था। पड़ते थे । सम्भवतः हिन्दू धर्मके पुनरुत्यान समय हिन्दुवों के निकट काशीको अपेक्षा पवित्र तीघ काशीमें सत बौद्धराजा ही राजत्व करते थे और नगत्में दूसरा नहीं। प्राचीन मुनि ऋपि उक्त मुक्ति- पीछे वही ब्राह्मणकटक हिन्दूधर्ममें दीक्षित हुये । उन्होंके समयसे पवित्र वारागामी धाममें फिर देव. धाम काशीका माहात्मा मुक्तकण्ठसे कीर्तन कर गये हैं। मन्दिर और देव मूर्तिको स्थापना होने लगी। विष्णु- मत्स्यपुराण निर्देश करता है- पुराणमें भी एक स्थल पर लिखा है कि विष्णु ने एक " गुह्यतमं चय' सदा वाराणसी मम। बार चक्र द्वारा वाराणसीको दग्ध किया था। मम्पामिव भूतानां हेतुर्मोक्षस्य सर्वदा" (१८०४०) (विष्णपुराण ५ अंश, २०५०) हमारा यह वागणसी क्षेत्र सटा गुह्यतम है ।। वाराणसीमें एक काल बौद्दधर्म प्रबन्न होनके यह नियत ही समस्त जीवगणके मोक्ष लाम का हेतु है। अद्यापि अनेक निदर्शन मिलते हैं। वाराणसीका पार्व- "विषयासकचित्तोऽपि स्यक्तधर्मरतिर्नरः ॥१॥ वर्ती सारनाथ बौद्धोका एक पवित्र तीर्थस्थान कहा जावे मत: सोऽपि संसार म पुनर्षिशेता" लाता है। ई० चतुर्थ शताब्दको चीन-परिधानक फा- धर्मके प्रति अनुराग परित्याग कर इन्ट्रियभोग्यः हि-यान और षष्ठ शताब्दके शेष भाग युपन चुयान विषय एकान्त पासक्त चित्त होते भी यदि कोई वारा- उक्त सारनाथ गये थे। उस समय भी वहां अनेक वाह- रासी क्षेत्रमें मरता, तो उसे संसारमें प्रवेश करना नहीं कीर्तियां थीं। उनका ध्वंसावशेष अद्यापि वर्तमान है। पड़ता और अवश्य मोक्ष मिलता है। सारनाथ देखो। काशीपुरी में भी बौह-कोतियोंका यत्- "पाविमुन्नास्य कथितं मया त गुधमुनमम् । ०५॥ सामान्य ध्वंसावशेष देख पड़ता है। पतः परतरं नास्ति सिहिगुमा महरि" यह निर्णय करना कठिन है-किसी समय हे देवि ! महेश्वरी। हमने तुमसे प्रविमुक्तक्षेत्रका काशीमें हिन्दूधर्मका पुनरभ्युदय हुआ । ई० षष्ठ अतिगय गुध विषय कीर्तन किया है। फलतः इसको शताब्द के शेष भाग चीन-परिव्राजक युमन भुया- के जाते समय कागौमें हिन्दूधर्म प्रबल था। उन्हों अपेक्षा सिद्धि विषयमें उत्कटतर विषय संसारमें ने वाराणसीधाममें शताधिक देवमन्दिर और प्रायः दूसरा नहीं "धकामी वा मकामो वा हापि तिटन गोऽपिशा दश सहस्र देव उपासक देखे थे * श्रीक्षेत्रको मादला- ‘पञ्जीके मत में उत्कम्तराज ययातिकेशरीने ८८६ शक पविमुक्ने न्यमन् पाणान् मम लोक महीयते" (१८५११) को भुवनेश्वरका विख्यात शिवमन्दिर निर्माण कराया प्रकाम हो या सकाम हो अथवा तिर्यग्योनिजात हो हो, अविमुक्त क्षेत्रमें प्राणत्याग करनेसे वह निययः सस समय वागणसीमें ३... माव बीड 21 हमारे सोश (शिवलोकम पूजा पाता है।