पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६३८

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काशी राव सेंधियाकी विधवा पत्नी बजाबाईने उसे वनवा विखेखर मन्दिरसे प्रायः प्रधं कोष उत्तर काल- दिया था। भैरवका मन्दिर है। काशीखण्डमें लिखा है-"महादेव- जानवापीके पूर्वने पाल राजप्रदत्त पांच हाथ ऊंची एक ने ब्रह्माका गर्व खर्व करने के लिये अपने कोपसे एक वृषभमूर्ति है। उसी स्थानपर है दराबादकी गमीका भैरवपुरुष बनाया था। वही पुरुष कालभैरव हैं। पूर्व- मन्दिर बना है। निकट ही बहुतसे पवित्र स्थान भी है। को ब्रह्माके पञ्चमुख रहे। कालभैरवने उनका पक्षम यहां खड़े होकर उत्तर-पश्चिमदिक दृष्टिपात करमे मस्तक छेदन किया । कालभैरव इस ब्रह्महत्या पाप से प्रथम हो ४० इस्त उच्च प्रादिविश्वेश्वरको मन्दिर अपनयनको कापालिकवत अवलम्बन कर ब्रह्माका नयमगोचर होता है। उससे अदूर 'काशीकट' नामक वही कपाल हाथ में ले पृथिवी पर घूमने लगे। उन्होंने पवित्र कूप है । पनेक लोगों के विश्वासानुसार जो वह तीर्थ पर्यटन किये थे। किन्तु वह कपाल कहीं एप कर उन कर्वट उत्तीर्ण हो सकता, उमको पुनर्जन्म विमुक्त न दुवा । क्या प्राश्चर्य ! काशीमें प्रवेश करते हो नहीं मिलता। उसी उद्देश्यसे मध्यमें दो एक व्यक्ति डूब कालभैरवके हाथ से वह कपाल गिर पड़ा। ब्रह्महत्या मरते थे। इमोसे गवरनमेण्टने दूधका मुख बन्द कर भी क्षणके मध्य विनष्ट हुयो । 'जिस स्थान पर कपास दिया है। उनके पीछे काशीकपटके पण्डोका विस्तर गिरा था, घही स्थान कपालमोचन तीर्थ के नामसे पावेदन होता है। पान कन्न प्रति सोमवारको एक विख्यात हुवा (कूर्मपुराण ३१८) इसके पीछे कालभैरवने बार उसका मुख खोल दिया जाता है। पनेवरेश्वरके निकट पवपूर्ण टेवीका मन्दिर है। कपालमोचन तोथको सम्मुख रख भक्तगण का पाप दूर करने के लिये उसी स्थान पर प्रस्थान किया । प्रा. हिन्दुवोंके विश्वासानुसार काशी में कोई पनाहार नहीं .रहता । वह अन्नदायिनीदेवी पन्न दे दीन दरिद्र सव. डायण मासको कष्णाष्टमीको उपवास कर कालभैरवके का दुख दूर करता है। पत्रपूर्ण मन्दिर जानेके पय- निकट रातको जागनेसे महापाप दूर होता है। काम- में असंख्य दीन दरिद्र मिक्षार्थ बैठे रहते हैं। मन्दिर- भैरवको पूजा करनेसे सनस्कामना सिद्ध होती है।' से भिचा स्वरूप एक मुट्ठी मटर टेनेकी प्रथा है। यहां (कामोखण १.) सपको भिक्षा मिलती है । अन्नपूर्णाका मन्दिर प्रायः कामभैरव वा भैरवनाथको वर्तमान मूर्ति प्रस्तरसे २०० वर्ष पहले पूनाके महारष्ट्रराजने बनवाया था । गठित क्याभ घोर नीलवर्ण है । उसके दोमो चर मन्दिरस्थ नाना रत्नविभूषया बैलोक्यमोहिनी पत्र- वीप्यमय तथा अधिष्ठान स्वर्णमय है। पार्समें उनके कुछ पूर्णाको पवित्र मूर्ति देख दर्शकका मन प्रकत मोहित रकी मूर्ति है। भैरवनाथका मंदिर देखने योग्य है। होता है। मन्दिरको एक और सप्ताश्वयोजित रथोपरि मंदिरगात विविध वर्णसे अनन्त एवं देवलोलासे सूर्यदेवको मूर्ति विराज करती है । एतदिन गौरी. चितित है। विशेषमा प्रवेशद्वारके वामपाश्य दशावतार- गणेश और हनुमान्को मूति पृथक् पृथक को अतिसुन्दरमूर्ति अहिन्स हैं। मन्दिरको चौखटमें स्थानमें प्रतिष्ठित है। दोनों पार्श्व हारपालेश्वरको मूर्ति दण्डायमान है। शनैश्चरेम्वरमन्दिरके दक्षिण शुक्रेश्वरका क्षुद्र मान्तभैरवका वर्तमान मन्दिर प्रायः १२५ वर्ष पूर्व मन्दिर है। काशीखण्ड के मत,-'पुराकानको मुगुन पूनार्क बानीरावने बनवाया था । मन्दिरके वहिर्भागमें न्दन शक्रने उप्तौ स्थान पर शिवलिङ्ग प्रतिष्ठा कर विशे भैरवनाथको पूर्वतन मूर्ति रखी है । मन्दिर में महादेव, वरकी धाराधना की थी। ससा शुक्रपतिष्ठित शुक्रखरको गणेश और नूर्यनारायणको मूर्ति धिराज करती है। पूला करनेसे मानव पुत्रवान, सौभाग्यशानी और परम काशीम गीतमा देयोंक ४ मन्दिर हैं। उनमें एक भैरव- सुखी होता है। शुक्रेश्वरका भला शुक्रत्तोक, वाम करता है।" रहिसा (१९३) और कूर्मपुराण (२१)में उन सके पर भिवपुराणको भामसंहिता (५०) एवं सनतकमार खिनका नख है। Vol. IV. 161 - ।